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वे अभय हो गए।
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भय होता है शत्रु से । उन्होंने समूचे जगत् के प्रति मैत्री की भावना की । उनका अन्त:करण निर्मल हो गया। वे अभय हो गए।
साधना-काल / २९
अनन्त की यात्रा पर चल पड़े। उन्हें इस बात का भय नहीं रहा कि कल क्या होगा ? न रोटी-पानी की चिन्ता, न स्थान की और न सर्दी-गर्मी की । जो शरीर का विसर्जन कर देता है वह इन सब चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है। वे वस्त्र का उपयोग करना छोड़ चुके थे। भूख-प्यास पर इतनी विजय पा ली थी कि महीनों तक रोटी-पानी न मिले तो भी उनकी साधना में किसी प्रकार के विघ्न की सम्भावना नहीं रही । स्थान की चिन्ता इसलिए नहीं थी कि जंगल का हर पेड़ उनका स्थान था। सूने घरों और देवालयों में ठहरने से उन्हें कौन रोकता ? कठिनाई उन्हें होती है जो केवल कपड़े ही पहनते हैं, घरों में ही रहते हैं और रोटी-पानी के द्वारा ही जीवन चलाते हैं। श्रमण वर्द्धमान ने धारणा के वस्त्र पहन लिये, अपनी चेतना के कोष्ठ में रहना प्रारम्भ कर दिया और सूक्ष्मलोक से शक्ति प्राप्त करने लगे, इसलिए उन्हें कोई कठिनाई नहीं रही। वे क्षत्रियकुंडपुरी से प्रस्थान कर सांझ के समय कर्मारग्राम पहुंचे। ग्राम के बाहरी भाग में ध्यान कर खड़े हो गए। यह प्रथम दिन उनकी कसौटी का दिन बन गया ।
ग्वाला और महावीर
एक ग्वाला खेत से आया । साथ में बैल थे । उसे गांव में जाना था । T उसने श्रमण को खड़े देखा। वह बैलों को वहां छोड़ गांव में चला गया। बैल चरते-चरते दूर चले गए। श्रमण भी बाहरी जगत् से बहुत दूर चले गए। गाएं दुहकर ग्वाला वापस आया । अन्धकार फैल रहा था । आंखें देखने में असमर्थ हो रही थीं। वह श्रमण के पास पहुंचा। उसने इधर-उधर घूमकर देखा, पर बैल नहीं मिले। उसने श्रमण के पास आकर पूछा- 'मेरे बैल कहां गए?' श्रमण ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह फिर बैलों को ढूंढ़ने चला गया। वह काफी रात जाने तक ढूंढ़ता रहा । पर बैल नहीं मिले। वह थककर सो गया। सुबह उठकर फिर बैलों की खोज में चल पड़ा। वह उन्हें खोजते खोजते फिर गांव के पास आ पहुंचा। उसने देखा, श्रमण के आस-पास बैल खड़े हैं । उसने सोचा- 'श्रमण की नीति अच्छी नहीं है । यह बैलों को चुराना
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