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________________ ३२/ भगवान् महावीर होकर चलते हैं । नन्दिवर्द्धन का चिन्तन इस धरातल पर था कि महावीर मेरे भाई हैं, राजकुमार हैं, ऐश्वर्य में पले-पुसे हैं, राजभवन की सुखसुविधाओं में रहे हैं । अब वे अकेले घूमेंगे, अकिंचन जीवन जीएंगे, कहां मिलेगा स्थान और भोजन की सुविधा? बहुत लम्बी है कष्टों की कहानी । लोग कहेंगे- नन्दिवर्द्धन ने अपने भाई के लिए कुछ नहीं किया। इसमें महावीर की चिन्ता है पर उससे भी अधिक चिन्ता इस बात की है कि दूसरे लोग क्या कहेंगे? महावीर के दर्शन का धरातल सर्वथा दूसरा है। वे सोचते नहीं हैं, वे देखते हैं। सोचना स्थिति सापेक्ष होता है । दर्शन यथार्थ का होता है। महावीर ने देखा - व्यक्ति बाहर में अपेक्षा - सूत्रों से जुड़ा है और भीतर में वह मुक्त है। महावीर ने देखा, मुक्ति उनके भीतर है । सत्य उनके भीतर है। व्यक्ति जब बाहरी अस्तित्व को स्वीकार करता है तब भीतर के दरवाजे बन्द हो जाते हैं । वह जब भीतरी अस्तित्व को स्वीकार करता है तब बाहर के दरवाजे बन्द हो जाते हैं । उनके बाहर के दरवाजे बन्द हो गए। इसलिए उन्हें किसी बात की चिन्ता नहीं थी - न शरीर की, न जीने की और न मरने की। वे निश्चित होकर परिव्रजन करने लगे । बहुत सारे साधक साधना काल में परिव्रजन को छोड़ एक स्थान में रहते हैं। महावीर साधना काल में घूमते रहे । यह विपरीत क्रम लगता है पर महावीर का दर्शन था कि जिसका मन घूमता है वह एक स्थान में बैठने पर भी घुमक्कड़ होता है। जिसका मन स्थित होता है वह घूमते हुए भी एक स्थान में रहता है । अपरिग्रही एक स्थान में कैसे रह सकता है ? बन्धन से 1 मुक्ति चाहने वाला किसी स्थान से अनुबंध कैसे कर सकता है ? महावीर अभी शरीरर-मुक्त नहीं थे। शरीरधारी को कुछ-न-कुछ हलन चलन करनी ही होती है । वे दिन-रात के अधिक भाग में स्थिर रहते थे । परिव्रजन में शरीर का स्पन्दन हो जाता था । वे अतिवादी नहीं थे । इसलिए केवल गति के पक्ष में भी नहीं थे और केवल स्थिति के पक्ष में भी नहीं थे । उन्होंने गति और स्थिति में समन्वय स्थापित किया । चंडकौशिक और महावीर भगवान् महावीर कनकखल आश्रमपद के भीतरी मार्ग से उत्तर वाचाला जा रहे थे । ग्वालों ने देखा । वे दौड़े-दौड़े महावीर के पास पहुंचे । I Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003115
Book TitleBhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages110
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Children, & Principle
File Size5 MB
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