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दर्शन और उद्बोधन/९१
रहा हुआ ममत्व-भाव भी पाप पैदा करता है। जो ममत्व-रहित है, वह मुकुट आदि परिग्रह से युक्त होने पर भी पाप से स्पृष्ट नहीं होता। ५४. कहं नु कुज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारए। पए पए विसीयंतो, संकप्पस्स वसं गओ।।
(द. २/१) -जो मनुष्य संकल्प के वश हो पद-पद पर विषाद-ग्रस्त होता है और काम-विषय-राग का निवारण नहीं करता, वह श्रमणत्व का पालन कैसे करेगा। ५५. बाहिरचाओ विहलो, अब्भंतरगंथजुत्तस्स।
(भावपाहुड १३) -जिस साधक के आभ्यन्तर ग्रन्थि विद्यमान है, उसका बाह्य त्याग व्यर्थ है। ५६. संकप्पमओ जीओ, सुखदुक्खमयं हवेइ संकप्पो।
(कार्ति. १८/४) -जीव संकल्पमय है। संकल्प सुख-दु:खात्मक होता है। ५७. चरिद जदं जदि णिच्चं, कमलं व जले णिरुवलेवो।
(प्रव. ३/१८) --जो यतनापूर्वक कार्य करता है, वह जल में कमल की भांति निरुपलेप होता है। ५८. सीलेण विणा विसया, गाणं विणासंति।
(शीलपाहुड़ २) -शील (संयम) के बिना इन्द्रिय-विषय ज्ञान को विकृत कर देते हैं। ५९. सीलं मोक्खस्स सोवाणं ।
(शीलपाहुड़ २०) -संयम मोक्ष का सोपान है। ६०. सुजणो वि होइ लहुओ, दुज्जणसंभेलणाए दोसेण । माला वि मोल्लगरूया, होदि लहू मडयसंसिट्ठा ।।
(भ. आ. २४५)
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