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९०/भगवान् महावीर
की अग्नि दिन और रात-दोनों में जलाती है। सूर्य के आतप से बचने का उपाय भी है, किन्तु काम के आतप से बचने का कोई उपाय नहीं है।
४९. जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई। दोमासकयं कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं ।।
(उ. ८/१०) -जैसे लाभ होता है वैसे ही लोभ होता है। लाभ से लोभ बढ़ता है। दो माशे सोने से पूरा होना वाला कार्य करोड़ से भी पूरा नहीं हुआ। ५०. पुढवीसालीजवा चेव, हिरण्णं पसुभिस्सह । पडिपुण्णं नालमेगस्स, इइ विज्जा तवं चरे।।
(उत्त. ९/४९) --पृथ्वी, चावल, जौ, सोना और पशु-ये सब एक की भी इच्छापूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं हैं, यह जानकर तप का आचरण करे।
५१. जह इंधणेहिं अग्गी लवणसमुद्दो णदीसस्सेहिं। तह जीवस्स य तित्ती नत्थि तिलोगे वि लद्धम्मि।।
(भ. आ. ११४३) --जैसे ईंधन से अग्नि की और हजारों नदियों से लवण समुद्र की तृप्ति नहीं होती, वैसे ही तीन लोक की सम्पत्ति प्राप्त हो जाने पर भी जीव की तृप्ति नहीं होती। ५२. गंथच्चाओ इंदिय-णिवारणे, अंकुसो व हत्थिस्स । णयरस्स खाइया वि य इंदियगुत्ती असंगत्तं ।।
(भ. आ. ११६८) -जिस प्रकार हाथी के नियंत्रण के लिए अंकुश होता है उसी प्रकार इन्द्रियों के नियंत्रण के लिए अपरिग्रह है। जिस प्रकार नगर की रक्षा के लिए खाई होती है उसी प्रकार इन्द्रिय-गुप्ति के लिए अपरिग्रह है।
५३. लोभो तणे विजादो जणेदि पावामिदरत्थ किं वच्चं । रइद मुउडादिसंगस्स वि हु ण पावं अलोभस्स ।।
(भ.आ. १३७१) -मूल्यवान् वस्तु की तो बात ही क्या, एक तुच्छ तिनके के प्रति
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