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दर्शन और उद्बोधन/८९
नहीं करता। वह अपनी मृत्यु की भी परवाह न करता हुआ धन पाने के लिए दु:साहस कर बैठता है।
४४. जंमि य आराहियंमि, आराहियं वयमिणं सव्वं । सीलं तवो य विणओ य, संजमो य खंती गुती मुत्ती।।
(प्र. ९/३) -ब्रह्मचर्य की आराधना करने पर सब व्रत आराधित हो जाते हैं-शील, तप, विनय, संयम, क्षमा, ध्यान और अनासक्ति-ये सब सध जाते
हैं।
४५. विसएसु मणुन्नेसु, पेमं नाभिनिवेसए । अणिच्चं तेसिं विन्नाय, परिणामं पोग्गलाण उ।।
(द. ८/५८) -शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श-पुद्गलों के इस परिणमन को अनित्य जानकर ब्रह्मचारी मनोज्ञ विषय में राग-भाग न करे।
४६. जीवो बंभा जीवम्मि चेव चरिया हवेज्ज जा जदिणो। तं जाण बंभचेरं, विमुक्कपरदेहवित्तिस्स ।।
(भ.आ. ८८९) -आत्मा ही ब्रह्म है। आत्मा में ही चर्या करना ब्रह्मचर्य है जो साधक पर-देह से विमुक्त होकर चर्या करता है वही सच्चा ब्रह्मचारी है।
४७. कामादुरो णरो पुण कामिज्जते जणे दु अलहंते। धत्तदि मरि, बहुधा मरुप्पवादादि करणेहिं ।।
(भ.आ. ८८९) -कामातुर व्यक्ति जब अपनी अभिलषित वस्तु को पाने में असमर्थ होता है तब वह विविध उपायों से आत्महत्या करने के लिए तत्पर हो जाता
है।
४८. सूरग्गी डहदि दिवा रत्तिं च दिवा य डहइ कामग्गी। सूरस्स अत्थि उछागारो कामग्गिणो णत्थि ।।
(भ. आ.) -सूर्य की अग्नि केवल दिन में ही जलाती है, किन्तु काम-वासना
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