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________________ ८८/भगवान् महावीर -साधक सब जीवों के लिए हितकर और सन्तोषकर वाणी बोलता है। वह अल्पभाषी होता है। ३९. अक्कोसेज्ज परो भिक्खुं, न तेसिं पडिसंजले। सरिसो होइ बालाणं, तम्हा भिक्खू न संजले ।। (उ. २/२४) -कोई मनुष्य भिक्षु को गाली दे, तो वह उसके प्रति क्रोध न करे। क्रोध न करने वाला भिक्षु बालकों (अज्ञानियों) के सदृश हो जाता है, इसलिए भिक्षु क्रोध न करे। ४०. समणं संजयं दन्तं, हणेज्जा कोई कत्थई । नत्थि जीवस्स नासु त्ति, एवं पेहेज्ज संजए ।। (उ. २/२७) -संयत और दान्त श्रमण को कोई कहीं पीटे तो वह 'आत्मा का नाश नहीं होता'-ऐसा चिन्तन करे, पर प्रतिशोध की भावना न लाए। ४१. जह कणयमग्गितवियं पि, कमयभावं ण त परिच्चयदि। तह कम्मोदयतविदो, ण जहदि णाणी दु णाणितं ।। (समय. १८४) -स्वर्ग अग्नि से तप्त होने पर भी स्वर्णत्व को नहीं छोड़ता, वैसे ही ज्ञानी पुरुष कर्म-विपाक से तप्त होने पर भी ज्ञानित्व को नहीं छोड़ता। ४२. चोरस्स णत्थि हियये दया य लज्जा दमो य विस्सासो। चोरस्स अत्यहे, णत्थि अकादव्वयं किं पि।। __(भ. आ. ८६२) -चोर के मन में न दया और न लज्जा होती है, न संयम और न विश्वास होता है। धन को पाने के विषय में चोर के लिए कुछ भी अकार्य नहीं है। ४३. लोभे य वड्ढिए पुण कज्जाकज्ज णरो ण चिंतेदि । तो अप्पणो वि मरणं अगणंतो साहसं कुणदि।। (भ. आ.. ८५७) -लोभ के बढ़ने पर मनुष्य करणीय और अकरणीय का चिंतन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003115
Book TitleBhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages110
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Children, & Principle
File Size5 MB
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