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शिक्षा की समस्याएं
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पर भी आदमी नहीं बदलता । कैसे बदले ? उपदेश की एक सीमा होती है। भाषा और विचार की अपनी सीमा है। भाषा और विचार व्यक्ति को प्रेरित करते भी हैं और नहीं भी करते। अपनी-अपनी सीमा है। यह बदलने का निश्चित उपाय नहीं है। भाषा और विचार से यदि कोई नहीं बदलता तो वे व्यर्थ हो जाते हैं। उनकी व्यर्थता नहीं है। कुछ बदलता है, किन्तु जितनी मात्रा में बदलना चाहिए उतना नहीं बदलता। इसका कारण स्पष्ट है। जिस बिन्दु पर आदमी बदलता है, उस बिन्दु तक भाषा नहीं पहुंचती, उपदेश नहीं पहुंचता। बदलने का बिन्दु बहुत गहरे में है और भाषा तथा विचार ऊपरी सतह तक ही पहुंच पाते हैं। इस स्थिति में बदलाव कैसे हो? जिसको बदलना है, वहां तक पहुंचने पर ही बदलाव घटित हो सकता है, अन्यथा नहीं ।
जब तक चित्त को स्थिर नहीं किया जाता, मन की चंचलता को कम नहीं किया जाता तब तक भीतर में जो पहुंचना चाहिए, वह नहीं पहुंचता । बदलाव और विकास की प्रक्रिया का पहला सूत्र है - मन को शान्त - स्थिर करना। मन की ऐसी स्थिति का निर्माण हो, जिसमें चिंतन भी नहीं, कल्पना की तरंग भी नहीं और स्मृति का एक कण भी नहीं। स्मृति - मुक्त, कल्पनामुक्त और चिन्तनमुक्त स्थिति का निर्माण हो। ऐसा होने पर भीतर तक जाने वाला प्रत्येक मार्ग साफ हो जाता है। उसमें कोई अवरोध नहीं रहता ।
मन और प्राण शक्ति की उपेक्षा
एक प्रश्न है - बदलने के हजारों प्रयत्न चल रहे हैं, फिर भी निष्पत्ति क्यों नहीं आती? इसका एक ही कारण है कि हमने बदलने को शिक्षा का अंग नहीं माना । आज बुद्धि के विकास को शिक्षा का अंग माना जाता है पर मन को शिक्षा का विषय बनाया ही नहीं गया। आज की शिक्षा से बुद्धि तेज होती है। उसकी धार बहुत तीखी हो जाती है, पर बेचारी बुद्धि क्या करेगी? जितनी बुराइयां और विकृतियां हैं, वे सब मन की चंचलता से उत्पन्न होती हैं। उनकी उत्पत्ति में बुद्धि का कोई हाथ नहीं है। मन को शिक्षित किए बिना इन विकारों से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। आज की शिक्षा में मन को प्रशिक्षित करने का कोई प्रावधान नहीं है। शिक्षा की परिधि में और सब विषय आ गए, पर मन को शिक्षित करने का कोई उपक्रम नहीं आया। जब तक मन प्रशिक्षित नहीं होता तब तक यदि हम व्यक्ति को बदलना चाहें, अच्छा बनाना चाहें, यह कभी संभव नहीं हो सकता। सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है मन को शिक्षित करना ।
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