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मूल्यपरक शिक्षा : सिद्धान्त और प्रयोग
१५५ में उसे भूल जाना-यह आज की प्रवृत्ति है। इससे यह स्पष्ट होता है कि कोरा सिद्धांत उतना उपयोगी नहीं है, जितना प्रयोग के साथ वह उपयोगी बनता है। भाव-परिवर्तन के लिए सिद्धांत और प्रयोग-दोनों का समन्वय आवश्यक है। सिद्धांत को जाने बिना प्रयोग हो नहीं सकता। इसलिए ज्ञान और क्रिया का समन्वय होना चाहिए। 'पढमं नाणं तओ दया'- पहले ज्ञान और फिर क्रिया, पहले जानो फिर उसका अभ्यास करो।
सिद्धान्त या मूल्य-बोध को व्यर्थ नहीं माना जा सकता। उसकी सार्थकता है। यदि वह कोरा या अकेला है तो सार्थकता आधी हो जाती है। वह पूरी होती है अभ्यास या प्रयोग के द्वारा। पक्षी के दो पंख होते हैं। वह दाएं पंख से उड़ता है या बाएं से ? उत्तर होगा- न वह केवल दाएं पंख से उड़ता है और न वह केवल बाएं पंख से उड़ता है। वह दोनों से उड़ान भरता है। एक पैर से चला जा सकता है, पर वह लंगड़ापन है। दोनों पैरों से ही ठीक चला जा सकता है। सिद्धांत और अभ्यास- ये दो पंख है। इनके सहारे से ही ठीक उड़ान भरी जा सकती है। ये दो पैर हैं, इनके सहारे ही ठीक चला जा सकता
अपेक्षित है अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय
जीवन का मूल्य है समन्वय। उसका विकास होना चाहिए। एक ओर वैज्ञानिक है और दूसरी ओर आध्यात्मिक या धार्मिक। यह समन्वय का दूसरा पक्ष है। दोनों में बहुत दूरी है। वैज्ञानिक समझता है कि धर्म कोरा बकवास है और धार्मिक समझता है कि वैज्ञानिक नास्तिक है, व्यर्थ की बातें प्रचारित करता है। किन्तु चिन्तनशील लोग मानते हैं कि अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय होना चाहिए। आज के विद्यार्थी में यह दृष्टिकोण विकसित होना चाहिए। विनोबा बहुत बार कहते- अब धर्म-युग नहीं है, अध्यात्म का युग है, राजनीति का युग नहीं है, विज्ञान का युग है। अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय होना चाहिए। आचार्य तुलसी ने इस बात पर बहुत बल दिया और समन्वय की बात को आगे बढ़ाया। जीवन विज्ञान के पाठ्यक्रम में अध्यात्म और विज्ञान का पूरा समन्वय है। जीवन-विज्ञान प्रशिक्षण की परिकल्पना हैआध्यात्मिक + वैज्ञानिक व्यक्तित्व का निर्माण हो। कोरा आध्यात्मिक व्यक्तित्व या कोरा वैज्ञानिक व्यक्तित्व बहुत लाभदायी नहीं होता। दोनों से समन्वित व्यक्तित्व बहुत लाभप्रद हो सकता है। जीवन-विज्ञान का विद्यार्थी बहुविध ज्ञान
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