________________
मूल्यपरक शिक्षा : सिद्धान्त और प्रयोग
हमारे दो जगत् हैं। एक है भीतर का जगत् और दूसरा है बाहर का जगत्। भीतर का जगत् बहुत सूक्ष्म है और बाहर का जगत् स्थूल है। बाहर के जगत् से व्यवहार को नापा जा सकता है, देखा जा सकता है। जैसा भाव होता है वैसा व्यवहार होता है। भाव का जगत् सूक्ष्म है। उसे पकड़ना बहुत कठिन है। जैसा स्राव होता है वैसा भाव होता है, वैसा ही व्यवहार करते हैं तो भाव और व्यवहार की संवादिता नहीं होती। हमें व्यवहार को बदलना है। विद्यार्थी के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए ही इस मूल्यपरक शिक्षा की जरूरत है। कुछ समय पूर्व यह नैतिक शिक्षा के नाम से जानी जाती थी । आज नैतिक शिक्षा मूल्यपरक शिक्षा की अविधा से विकसित और प्रतिष्ठित हो गई।
मूल्य बोध : प्रयोग
जीवन के मूल्यों का अवतरण हो, शिक्षा के साथ मूल्यों का बोध हो तथा विद्यार्थी के जीवन में मूल्यों की प्रतिष्ठा हो, यह वर्तमान की शिक्षा के साथ सुचिंतित विचार चल रहा है। सब चाहते हैं कि विद्यार्थी के जीवन में मूल्यों की प्रतिष्ठा हो ।
सत्य का मूल्य है। इसके दो पहलू हैं- भावात्मक और व्यवहारात्मक। सिद्धांत का ज्ञान कराया जाता है किंतु परिवर्तन की बात बहुत कम होती है। जितनी थ्योरियां है, सिद्धान्त हैं, जितना वाङ्मय है, जितने उपदेश हैं, उनका काम है जानकारी दे देना। किंतु उनके भावात्मक परिवर्तन हो या व्यवहार बदले, ऐसा बहुत कम होता है। कभी किसी की बात सुनकर व्यक्ति का मस्तिष्क झंकृत हो उठता है और वह बदल जाता है, पर इसे सामान्य घटना नहीं माना जा सकता।
श्रवण, प्रवचन, वाणियां, सिद्धांत- आज ये सब देश-काल प्रतिबद्ध हो गए। धर्म-स्थान पर भगवान की पूरी चिंता करना और दूकान, घर या कार्यालय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org