________________
जीव-अजीव
तो यह हुआ कि जीव अनन्तकाल तक भटकता ही रहेगा, उसका भटकना कभी बन्द नहीं होगा। उसे कभी भी अनन्त सुख नहीं मिलेगा।
जैन दर्शन के अनुसार अनन्त जीव मुक्त हो चुके हैं, अनन्त जीव मुक्त होंगे। संसार में अनंत जीव हैं और अनन्त जीवों की मुक्ति होने पर भी अनन्त जीव रह जाएंगे। संसार का अंत कभी नहीं होगा। वह अनादि और अनन्त है। गणित के विद्यार्थी को यदि पूछा जाए कि अनन्त संख्या में से यदि अनन्त की बाकी निकाली जाए तो शेष कितने रहेंगे ? जबाब मिलेगा, अनन्त ही शेष रह जाएगा। फिर अनंत जीवों वाला संसार खाली कैसे रहेगा? ___अखिल विश्व के जीवों की संख्या से यदि मुक्त होने वाले जीवों की तुलना की जाए तो वह समुद्र के जल में बूंद के समान भी नहीं ठहरेगा। ऐसी हालत में यह शंका करना कि जीवों के मुक्त होने का क्रम बराबर जारी रहने एवं मुक्त जीवों के पुनः संसार में न लौटने पर सांसारिक जीवों की संख्या एक दिन समाप्त हो जाएगी, ठीक वैसा ही है जैसे यह शंका करना कि एक चींटी के जल उलीचते रहने से समुद्र का जल एक दिन समाप्त हो जाएगा।
जैन सिद्धांत के अनुसार सब कर्मों के सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो जाने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। जिनके कर्म सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो चुके हैं, वे मुक्त जीव कमों के अभाव में संसार में पुनः आ ही कैसे सकते हैं? यदि वे पुनः संसार में आएं तो फिर कहना होगा कि वे मुक्त नहीं हैं।
मुख्यतया तत्त्व दो हैं--जीव और अजीव। किन्तु मोक्षसाधना के रहस्य को बतलाने के लिए उनके नौ भेद किए गए हैं। इन नौ भेदों में प्रथम भेद जीव का है, अन्तिम भेद मोक्ष का। बीच के भेदों में मोक्ष की साधक-बाधक अवस्थाओं का वर्णन है।
आत्मा का वास्तविक स्वरूप चैतन्य है। आत्मा अपने स्वरूप को प्रकट करना चाहती है, किन्तु बाधक तत्त्व उसे अपने स्वरूप तक पहुंचने में बाधा डालते हैं। वह बाधक तत्त्व हैं अजीव, अचेतन। वह अचेतन होने के कारण स्वयं बाधा नहीं दे सकता। किन्तु आत्मा अपनी प्रवृत्ति के द्वारा उसे अपनाती है। आत्मा वह अवस्था आश्रव है। अपनाया हुआ अजीव (पुद्गल) तत्त्व आत्मा के साथ घुल-मिलकर उसके स्वरूप को दबाए रखता है। वह अवस्था बंध है। अपनाया हुआ अजीव (पुद्गल) तत्त्व आत्मा के साथ नियमित काल तक ही रह सकता है, उसके बाद वह जीव को सुख-दुःख का अनुभव कराता हुआ आत्मा से दूर हो जाता है। इस अवस्था का नाम पुण्य या पाप है। जब-जब
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org