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चौदहवां बोल
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सांसारिक जीवन संघर्षमय है, कोलाहलमय है। वह पग-पग पर दुःख और विपत्तियों से भरा हुआ है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के द्वारा हम ऐसी स्थिति में पहुंच सकते हैं जहां परम शांति है। उसे पाकर जीव कृत-कृत्य हो जाता है। यही सुख की परम सीमा है। यही परम गति है। यही मुक्ति है, मोक्ष है, निर्वाण है।
कुछ लोग स्वर्ग को ही सुख की अवधि मान बैठते हैं। उनकी दृष्टि में स्वर्ग-सुख ही परम-सुख है, परन्तु उस सुख का भी नाश होता है, अतः जैन दर्शन उसे परम-सुख नहीं मानता। देवताओं की आयु हमारी अपेक्षा बहुत लम्बी है फिर भी एक दिन उसका अन्त होता ही है। जिस पुण्य-बन्ध से स्वर्गलोक मिलता है, उसका भोग द्वारा क्षय हो जाने पर, जीव स्वर्गलोक से च्युत होकर पुनः हमारे ही लोक में जन्म लेता है। अतः पूर्ण सुख चाहने वाले स्वर्ग-सुख को परम-सुख नहीं मान सकते।
हम तो ऐसा सुख चाहते हैं, जिसका कभी अन्त न हो, जिसमें दुःख की किचिंत भी मिलावट न हो और जिससे बढ़कर दूसरा कोई भी सुख न हो। ऐसा अनन्त सुख सिवाय मुक्ति के और कहीं नहीं मिल सकता।
कुछ लोगों की मान्यता यह है कि मुक्त पुरुष 'महाप्रलय' तक संसार में नहीं लौटते अर्थात् उनकी वह सुखमय स्थिति केवल 'महाप्रलय तक ही स्थिर रहती है। महाप्रलय के बाद जब सृष्टि पुनः उत्पन्न होती है तब मुक्त जीव भी संसार में लौट आते हैं। ऐसी मान्यता वाले यह तर्क उपस्थित करते हैं कि मुक्त कभी वापस न आएं तो एक दिन सब जीव मुक्त हो जाएंगे और यह संसार जीवों से खाली हो जाएगा। जब यह सृष्टि अनादिकाल से चली आयी है तो अब तक सब जीवों को मुक्त हो जाना चाहिए था। किन्तु अब तक संसार का अभाव नहीं हुआ, इससे यही मालूम होता है कि महाप्रलय के बाद जब सृष्टि का पुनः निर्माण होता है तब वे मुक्त जीव पुनः जन्म लेकर संसार का क्रम चालू रखते हैं।
इस मान्यता के अनुसार यदि मुक्ति की अवधि मान ली जाए तब तो स्वर्ग और मोक्ष में कोई अन्तर नहीं रह जाता। हमारी आयु की अपेक्षा देवताओं की आयु बहुत लम्बी है और देवताओं की आयु की अपेक्षा ऐसे मुक्त जीवों की आयु बहुत लम्बी है। इससे तो मुक्त जीवों का सुख भी अवधि-सहित ठहर जाता है। एक न एक दिन उनके सुख की भी समाप्ति हो जाती है। ऐसी दशा में तो अनन्त सुख की कल्पना भी जीव के लिए स्वप्नवत् है। इसका अर्थ
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