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जीव-अजीव
बिना की जानेवाली निर्जरा अकाम-निर्जरा है। ८. बन्ध
आत्म-प्रदेशों के साथ कर्म-पुद्गलों का दूध-पानी की तरह मिल जाना, सम्बन्धित हो जाना, एकीभाव हो जाना, बन्ध कहलाता है। बंध चार प्रकार का होता है-प्रकृति बंध, स्थिति बंध अनुभाग बंध, प्रदेश बंध।'
बन्ध शुभ और अशुभ-दोनों प्रकार का होता है। प्रश्न-बन्ध और पुण्य-पाप में क्या अन्तर है?
उत्तर--पुण्य पाप शुभ-अशुभ कर्म की उदीयमान अवस्था है और बंध पुण्य-पाप की बध्यमान अवस्था है।
जब तक कर्म-पुद्गल आत्मा के साथ बंधे हुए, सत्ता रूप में विद्यमान रहते हैं तब तक आत्मा को सुख-दुःख नहीं होता । जब शुभ कर्म उदय में
आते हैं तब आत्मा को सुख मिलता है और कर्मों की यही उदयावस्था पुण्य है। जब अशुभ कर्म उदय में आते हैं तब आत्मा को दुःख होता है और कर्मों की यही उदयावस्था पाप है। जब तक कर्म बन्धे रहते हैं तब वह बन्ध है और जब उन बन्धे हुए कर्मों का शुभाशुभ उदय होता है तब शुभ उदय को पुण्य और अशुभ उदय को पाप कहते हैं। ६. मोक्ष
अपूर्ण रूप से कर्मों का क्षय होना निर्जरा और पूर्ण रूप से कमों का क्षय होना मोक्ष है। मुक्त आत्माएं जहां रहती हैं, उस स्थान को उपचार या समीपता से मोक्ष कहा जाता है, किन्तु वह मोक्ष तत्त्व नहीं। मोक्ष तत्त्व से सिर्फ मुक्त आत्माओं का अर्थ ग्रहण होता है।
मोक्ष प्राप्त करने के उपाय या साधन चार हैं : १. ज्ञान-जिन पदार्थों का जैसा स्वरूप है, उनको वैसा ही जानना। २. दर्शन-तात्त्विकरुचि,सम्यक् श्रद्धा। ३. चारित्र-आश्रव का निरोध करना।
४. तपस्या-ऐसी तपस्या, जिसमें किसी भी प्राणी की हिंसा न हो, परिणाम विशुद्ध हो।
यह जीव ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से उन पर श्रद्धा करता है, चारित्र से आने वाले कर्मों को रोकता है और तप से बंधे हुए कर्मों को तोड़कर आत्म-विशुद्धि करता है।
१. देखें बोल दसवां-बंध प्रकरण ।
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