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________________ चौदहवां बोल ५. कायक्लेश-आसन आदि करना तथा शरीर के ममत्व का त्याग करना। ६. प्रतिसंलीनता-इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से दूर रखना। ये छह भेद बाह्य तपस्या के हैं। ये आत्म-शुद्धि के बहिरंग कारण हैं। ये प्रायः बाह्य-शरीर को तपाने वाले हैं, अतः इन्हें बाह्य-तप कहा गया है। ७. प्रायश्चित्त-जो काम आचरण के योग्य नहीं है, वैसा काम हो जाने पर उसकी विशुद्धि के लिए यथोचित अनुष्ठान करना अर्थात् अनुचित कार्य से मलिन आत्मा को शुद्ध-प्रवृत्ति के द्वारा विशुद्ध करना। ८. विनय-विनम्रता--मानसिक, वाचिक और कायिक अभिमान का परित्याग करना) ६. वैयावृत्त्य-आचार्य आदि की सेवा करना। १०. स्वाध्याय-काल आदि की मर्यादा से आत्मोन्नति-कारक अध्ययन करना। ११. ध्यान-चित्त को अशुभ-प्रवृत्ति से हटाकर शुभ-प्रवृत्ति में एकाग्र करना। १२. व्युत्सर्ग काया की प्रवृत्ति (हलन-चलन आदि) तथा क्रोध आदि को छोड़ना। ये छह भेद अन्तरंग तपस्या के हैं। ये आत्म-शुद्धि के अंतरंग कारण हैं। ये आत्मा की आंतरिक प्रवृत्तियों को तपाने वाले हैं, अतः इन्हें आभ्यन्तर तप कहा गया है। संवर का हेतु निरोध है, निवृत्ति है। निर्जरा का हेतु प्रवृत्ति है। संवर के साथ निर्जरा अवश्य होती है। निर्जरा संवर के बिना भी होती है। उपवास में आहार करने का जो त्याग किया जाता है वह संवर है। उपवास में शारीरिक कष्ट होता है, शुभ भावना होती है, शुभ प्रवृत्ति होती है, उसस कर्म-निर्जरण होता है, उससे आत्मा उज्ज्वल होती है, अतः यह निर्जरा है, संवर के साथ होने वाली निर्जरा है। एक व्यक्ति भोजन करने का त्याग किए बिना ही आत्म-शुद्धि के लिए भूखा रहता है, यह संवर-रहित निर्जरा है। तात्पर्य इतना ही है कि निर्जरा शुभ-प्रवृत्ति-जन्य है, चाहे वह संवर के साथ हो या उसके बिना हो। निर्जरा के दो प्रकार हैं--सकाम और अकाम। आत्म-विशुद्धि के लक्ष्य से की जाने वाली निर्जरा सकाम-निर्जरा है और आत्म-विशुद्धि के लक्ष्य के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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