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जीव-अजीव
हैं। उन पन्द्रह आश्रवों का प्रत्याख्यान करने से अत्याग-भावना रूप अव्रत आश्रव का निरोध हो जाता है, व्रत संवर हो जाता है। उनके प्रत्याख्यान से अयोग संवर नहीं होता, इसका कारण यह है कि यौगिक प्रवृत्ति दो प्रकार की है-शुभ और अशुभ । अयोग संवर इन दोनों का सर्वथा निरोध करने से होता है। अशुभ प्रवृत्तियों का आशिक प्रत्याख्यान पांचवें गुणस्थान में और पूर्ण प्रत्याख्यान छठे गुणस्थान में होता है, लेकिन शुभ प्रवृत्ति तेरहवें गुणस्थान तक चालू रहती है, उसका पूर्ण निरोध मुक्त होने से पूर्व चौदहवें गुणस्थान में ही होता है। अतः प्राणातिपात आदि सावध प्रवृत्तियों के प्रत्याख्यान में प्रधानतया व्रत संवर ही होता है। योग पर उसका असर सिर्फ इतना ही होता है कि मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति अशुभ नहीं होती। अपेक्षादृष्टि से आशिक रूप में अयोग संवर हो भी सकता है पर वह अयोग संवर का अंश कहलाता है, अयोग संवर नहीं । ७. निर्जरा
शुभ योग की प्रवृत्ति से होने वाली आत्मा की आशिक उज्ज्वलता को निर्जरा कहते हैं।
निर्जरा एक ही है फिर भी कारण को कार्य मानकर उसके बाहर भेद किए गए हैं। जिस प्रकार एक ही स्वरूप वाली अग्नि काठ, पाषाण, गोमय तथा तृणादि रूप कारणों के भेद से अनेक प्रकार की कही जाती है, वैसे ही तपस्याओं के भेद से निर्जरा भी बारह प्रकार की कही गई है। परन्तु स्वरूप की दृष्टि से वह एक ही प्रकार की है।
निर्जरा के बारह भेद हैं:
१. अनशन-तीन या चार आहारों' का त्याग करना अनशन है। यह कम से कम एक दिन रात का और ज्यादा से ज्यादा छह मास तक का होता
२. ऊनोदरी-जितनी मात्रा में भोजन करने की रुचि है, उससे कम खाना, पेट को कुछ भूखा रखना ऊनोदरी है।
३. भिक्षाचरी-वृत्तिह्मस-अभिग्रह करना, जैसे -साधु अभिग्रह करता है कि इतने घरों से अधिक मैं आज भिक्षा ग्रहण नहीं करूंगा, आज यदि भिक्षा में अमुक पदार्थ न मिला तो भोजन नहीं करूंगा आदि।
४. रस-परित्याग-विगय (दूध, दही, मक्खन आदि) का परित्याग करना।
१. चार प्रकार का आहार-अशन, पान, खाय, स्वाथ।
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