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चौदहवां बोल
इस नियमित काल की अवधि के पूर्व ही आत्मा उसे (कर्म-पुद्गल समूह को) अपनी शुभ प्रवृत्ति के द्वारा अलग कर देती है, वह अवस्था निर्जरा है। स्वरूप-प्रकटन की उत्कट अभिलाषा से जब आत्मा कर्म को अपनाने की प्रवृत्ति को ग्रहण नहीं करती और पूर्व-संचित कर्मों को तोड़कर बंधन-मुक्त हो जाती है, वह अवस्था मोक्ष है।
जीव मूल तत्त्व है। अजीव उसका विरोधी तत्त्व है। बंध, पुण्य और पाप--तीनों जीव के द्वारा होने वाली अजीव की अवस्थाएं हैं और आत्मा के स्वरूप-प्रकटन में बाधक हैं। आश्रव आत्मा की बाधक अवस्था है। संवर और निर्जरा आत्मा की साधक अवस्थाएं हैं। मोक्ष आत्मा की स्वरूप है।
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