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आत्मा आठ
पन्द्रहवां बोल
१. द्रव्य आत्मा
२. कषाय आत्मा
३. योग आत्मा
४. उपयोग आत्मा
८. वीर्य आत्मा
जीव की जितनी परिणतियां हैं, भिन्न-भिन्न प्रकार की रूपान्तरित अवस्थाएं हैं, उतनी ही आत्माएं हैं। इसलिए वे सब अप्रतिपाद्य हैं-उनका वर्णन नहीं किया जा सकता । प्रस्तुत बोल में प्रधानतः आठ आत्माओं का ही प्रतिपादन किया गया है :
५. ज्ञान आत्मा
६. दर्शन आत्मा
७. चारित्र आत्मा
१. द्रव्य आत्मा - चैतन्यमय असंख्य प्रदेशों का पिण्ड जीव ।
२. कषाय आत्मा - जीव की क्रोध, मान, माया और लोभ - इन चार की कषायमय परिणति ।
३. योग आत्मा - जीव की मन, वचन और काया- इन तीन की योगमय परिणति ।
४. उपयोग आत्मा - जीव की ज्ञान-दर्शनमय परिणति ।
५. ज्ञान आत्मा - जीव की ज्ञानमय परिणति ।
६. दर्शन आत्मा - जीव आदि तत्त्वों के प्रति यथार्थ या अयथार्थ श्रद्धान । ७. चारित्र आत्मा-कर्मों का निरोध करने वाला जीव का परिणाम । ८. वीर्य आत्मा जीव का सामर्थ्य विशेष ।
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आत्मा और जीव
आत्मा जीव का पर्यायवाची शब्द है। द्रव्य आत्मा और जीव का एक ही अर्थ है । कषाय जीव का कर्म-कृत दोष है। योग जीव की प्रवृत्ति है। उपयोग जीव का लक्षण है। ज्ञान जीव का गुण है। दर्शन जीव की रुचि है | चारित्र जीव की निवृत्ति रूप अवस्था है।
वीर्य जीव की शक्ति है। इसका अर्थ यह हुआ कि द्रव्य - आत्मा मूल है। और शेष आत्माओं में से कोई उसका लक्षण है, कोई गुण तो कोई दोष। जिस प्रकार एक मूल आत्मा की यहां सात मुख्य-मुख्य परिणतियां बतलाई गई हैं.
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