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पन्द्रहवां बोल
उसी प्रकार उसका जितने प्रकार का परिणमन होता है, उतनी ही आत्माएं अर्थात् अवस्थाएं हैं। सारांश यह हुआ कि जीव परिणामी नित्य है । उसकी अवस्थाएं बदलती रहती हैं और वे अनंत हैं। आत्मा शब्द उन-उन शब्दों का बोधक है। आत्मा का अस्तित्व
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आत्मा-अमूर्त है। श्याम, पीत आदि वर्ण-रहित है, रूप-रहित है, अतः इन्द्रियों के द्वारा उसका ग्रहण नहीं किया जा सकता । इन्द्रिय- ज्ञान का विषय केवल मूर्त-विषय ही है और इसी कारण इन्द्रिय-ज्ञान के पक्षपाती आत्मा का अस्तित्व नहीं मानते। वे कहते हैं, इन्द्रिय-ज्ञान से परे कोई वस्तु ही नहीं है। किन्तु ध्यान देने से यह कथन असंगत प्रतीत होगा । ज्ञान की अपूर्णता वस्तु के अभाव में कैसे मानी जा सकती है ? सूक्ष्म यन्त्रों की सहायता से देखे जाने वाले कीटाणुओं का, उन यन्त्रों की अविद्यमानता में अभाव कैसे मान लें ? इन्द्रिय-ज्ञान पौद्गलिक साधनों की अपेक्षा रखता है । साधन जितने प्रबल होते हैं, ज्ञान उतना ही स्पष्ट होता है, परन्तु केवल मूर्त द्रव्य का, अमूर्त का नहीं । जिन पदार्थों को हम साधारणतया आंखों से नहीं देख सकते, उनको यंत्रों की सहायता से देख सकते हैं और जिनको यंत्रों की सहायता से भी नहीं देख सकते, उनको आत्मीय - ज्ञान का अधिक विकास होने से देख सकते हैं। इसलिए इन्द्रियग्राह्य नहीं होने के कारण ही आत्मा नहीं है, यह बात किसी भी दृष्टि से संगत नहीं है।
'इन्द्रियों से पदार्थों का बाहरी ज्ञान ही हो सकता है, अतः हम पदार्थों का बारीकी से निरीक्षण करने के लिए यन्त्रों का आविष्कार करते हैं और कुछ दूर तक सफल भी होते हैं। लेकिन इनका कुछ दिनों तक व्यवहार करने के पश्चात् इनमें कोई आकर्षण नहीं रह जाता और हम पुनः नये अधिक शक्ति वाले यंत्रों का आविष्कार करते हैं। इस प्रकार नये-नये आविष्कार करने पर भी हम अनुभव करते हैं कि वास्तविक रहस्य का पूर्णता का पता लगाने में हम अब भी कितने असहाय हैं और अन्त में हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि हमारा यन्त्र चाहे कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, इन्द्रिय-ज्ञान के परे की चीज हम जान ही नहीं सकते। इसलिए हम चाहे कितना ही समय या शक्ति क्यों न खर्च करें, हम उन यन्त्रों से पदार्थों के असली स्वरूप का पता लगा ही नहीं सकते। इन यन्त्रों द्वारा प्राप्त आज का ज्ञान कल अज्ञान में परिणत हो जाएगा। पिछले साल का ज्ञान आज अज्ञान प्रमाणित हो चुका
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