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________________ ६४ जीव-अजीव और इस शताब्दी का ज्ञान अगली शताब्दी में अज्ञान प्रमाणित होगा।' अनुमान द्वारा आत्मा का बोध अनुमान के द्वारा भी आत्मा का अस्तित्व जाना जा सकता है। हम हवा को नहीं देख सकते, फिर भी स्पर्श के द्वारा उसका बोध होता है। इसी प्रकार हम आत्मा को नहीं देख सकते, फिर भी अनुभव एवं ज्ञान करने की शक्ति से उसे जान सकते हैं। 'एक अन्धेरे कमरे में पर्दे पर सिनेमा की तसवीर दिखाई जा रही है। हम उन तसवीरों को देख रहे हैं। किसी ने उस कमरे की खिड़कियों एवं दरवाजों को खोल दिया। पर्दे पर तब सूर्य का प्रकाश पड़ने लगा और तसवीर दीखना बन्द हो गया। तसवीरें अब भी पर्दे पर हैं परन्तु हम देख नहीं सकते। इस हालत में क्या हम पर्दे पर तसवीरों के अस्तित्व को अस्वीकार कर सकते हैं? कभी नहीं। इसी प्रकार हमारे पूर्वजन्म की घटनावलियां हमारी आत्मा के साथ सम्बन्ध किए हुए हैं परन्तु हम उनके सम्बन्ध में जान नहीं सकते, फिर भी उनका अस्तित्व है। हमारे वर्तमान के इंद्रिय-ज्ञान ने उन घटनावलियों का ज्ञान रोक रखा है। अतः यदि हम इन्द्रियज्ञान रूपी दरवाजों और खिड़कियों को बन्द करके मानसिक एकाग्रता, आत्म-चिंतन या ध्यान-रूपी किरणों से जानने की चेष्टा करें तो अपने पूर्वजन्म की समस्त घटनावलियों, समस्त अनुभवों का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।' आत्मा अमर है ____ आत्मा का न तो कभी जन्म ही हुआ और न कभी इसकी मृत्यु ही होगी। यह अनादि है, अनन्त है। अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत है। शरीर की मृत्यु होने पर भी आत्मा की मृत्यु नहीं होती। यह प्रकृति का अटल नियम है कि जो व्यक्ति जैसा काम करता है उसका फल भी वही भोगता है। कर्ता एक हो और भोक्ता कोई दूसरा, ऐसा हो नहीं सकता। इस न्याय से इस लोक में इस जन्म में जिन कर्मों का फल भोगना बाकी रह जाता है उसको दूसरे भव में, दूसरे जन्म में भोगने के लिए उस ' आत्मा को पुर्नजन्म धारण करना ही पड़ेगा। जीवात्मा की इस देह में जैसे बचपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही उसे दूसरे जन्म की भी प्राप्ति होती है। इसी शरीर में बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक हम नाना प्रकार के परिवर्तन देखते हैं। शरीर के बहुत अंशों में बदल जाने पर भी आत्मा नहीं बदलती। जो आत्मा बचपन में हमारे शरीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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