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________________ जीव-अजीव ८. प्राणेन्द्रिय आश्रक-घ्राणेन्द्रिय की राग-द्वेषयुक्त प्रवृत्ति । ६. रसनेन्द्रिय आश्रक्-रसनेन्द्रिय की राग-द्वेषयुक्त प्रवृत्ति । १०. स्पर्शनेन्द्रिय आश्रक-स्पर्शन-इन्द्रिय की राग-द्वेषयुक्त प्रवृत्ति । ११. मन आश्रक्-मन की प्रवृत्ति । १२. वचन आश्रक्-वचन की प्रवृत्ति । १३. काया आश्रक्-काय की प्रवृत्ति । १४.भण्डोपकरण आश्रक-भण्ड-पात्र, उपकरण-वस्त्र आदि को यतना पूर्वक न रखना। १५. सचि-कुशाग्र मात्र आश्रक्-किचित् मात्र भी पापयुक्त प्रवृत्ति । मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग आश्रव से अशुभ कर्मों का बन्ध होता है। शुभ योग की प्रवृत्ति से शुभ कर्म का बन्ध होता है। उस शुभ कर्म के बन्ध की अपेक्षा से शुभ योग आश्रव की कोटि में आता है। वह शुभयोग आश्रव कहलाता है। ६. संवर कर्म का निरोध करने वाली आत्मा की अवस्था का नाम संवर है। संवर आश्रव का विरोधी तत्त्व है। आश्रव कर्म-ग्राहक अवस्था है और संवर कर्म-निरोधक। आश्रव की भेद-संख्या बीस है और संवर की भी भेद-संख्या बीस है। प्रत्येक आश्रव का एक-एक संवर प्रतिपक्षी है, जैसे--मिथ्यात्व आश्रव का प्रतिपक्षी सम्यक्त्व संवर है। अव्रत आश्रव का प्रतिपक्षी व्रत संवर है। प्रमाद आश्रव का प्रतिपक्षी अप्रमाद संवर है। कषाय आश्रव का प्रतिपक्षी अकषाय संवर और योग आश्रव का प्रतिपक्षी अयोग संवर है। इसी प्रकार प्राणातिपात आदि पन्द्रह आश्रवों के अप्राणातिपात आदि पन्द्रह संवर प्रतिपक्षी हैं। १. सम्यक्च संवर-विपरीत श्रद्वान का त्याग करना सम्यक्त्व संवर है। सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर भी त्याग किए बिना सम्यक्त्व संवर नहीं हो सकता। अनन्तानुबन्धी चतुष्टय-क्रोध, मान, माया और लोभ के उपशम से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है और संवर अप्रत्याख्यानीय चतुष्टय के क्षयोपशम से होता है।' २. व्रत संवर--व्यक्त और अव्यक्त आशा का परित्याग करना व्रत संवर है। जो पदार्थ न तो कभी काम में लाए गए और न कभी उनका नाम ही सुना गया तो भी उनकी आशा, उनको भोगने की लालसा जो बनी रहती है, १. नव-पदार्थ, संवर-पदार्थ, ढाल १, गाथा १ नव ही पदार्थ श्रद्धै यथातथ्य, तिण ने कहीने सम्यक्त्व-निधान पछे त्याग करे ऊंघा सरपण तणा, ते सम्यक्त्त संवर प्रधान ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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