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चौदहवां बोल
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है, अतः मुक्ति का साधक है और शुभ योग से पुण्य बन्धता है, अतः मुक्ति का बाधक है। २
ईंधन जितना आर्द्र (गीला) होता है उतना ही प्रकाश के साथ-साथ धुआं भी रहता है। ठीक इसी तरह जब तक आत्मा के कषाय और योग आश्रव प्रबल होते हैं तब तक कर्म का बन्ध भी प्रबल होता है। जब कषाय का नाश हो जाता है तब अशुभ कर्म का बन्धन तो बिल्कुल ही रुक जाता है और जो शुभ-कर्म बन्धता है वह भी इतनी कम स्थिति का बन्धता है कि पहले समय में बन्धता है, दूसरे समय उदय में आ जाता है और तीसरे समय में नष्ट हो जाता हैं। इसलिए आत्मा की मुक्ति होने में कोई बाधा नहीं आती।
आत्मा की मुक्ति होने में दो बाधाएं हैं : १. कर्म का बन्ध होते रहना। २. बंधे हुए कर्मों का क्षय नहीं होना।
बारहवें गुणस्थान में चार आश्रव तथा अशुभ योग आश्रव का निरोध हो जाता है, पाप-कर्म का बन्ध होना रुक जाता है। केवल शुभ-कर्म का बन्ध रहता है, वह भी अति अल्पस्थिति का (दो समय की स्थिति का) होता है। चौदहवें गुणस्थान में योग का भी सर्वथा निरोध हो जाता है। योग का निरोध होने से शुभ कर्म का बन्ध भी रुक जाता है, अवशिष्ट कर्म क्षीण हो जाते हैं और आत्मा मुक्त हो जाती है।
योग आप्रव स्वतंत्र भी है और पूर्ववर्ती चार आश्रवों का बाह्य रूप में प्रदर्शन भी करता है। ___आश्रव के पांच मुख्य भेदों का यह संक्षिप्त विवरण है। योग आश्रव के गौण (अवान्तर) भेद पन्द्रह हैं। इनका विवरण इस प्रकार है
१. प्रणातिपात आश्रव-प्राणों का अतिपात--वियोजन करना, जीव-वध
करना। २. मृषावाद आश्रक-झूठ बोलना। ३. अदत्तादान आश्रक-चोरी करना। ४. मैथुन आश्रक्-अब्रह्मचर्य सेवन करना। १. परिग्रह आश्रव-धन, धान्य, मकान आदि पर मनत्व रखना। ६. श्रोत्रेन्द्रिय आश्रक-श्रोत्रेन्द्रिय की राग-द्वेषयुक्त प्रवृत्ति ।
७. चक्षुइन्द्रिय आश्रक-चक्षुरिन्द्रिय की राग-द्वेषयुक्त प्रवृत्ति । २. छद्मस्थना शुभ याग र, कर्म कटै छै तेह थी। क्षयोपशम-भाव-प्रयोग रे शिव-साधक छै तेह सुं।। छमस्थना शुभ योग रे, पुण्य बन्यै छै तेह थी। उदयभाव सूं प्रयोग रे, शिव-बाधक इण कारणे॥
जचायकृत-साधक-बाधक-सोरठा।
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