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________________ जीव-अजीव एक नहीं है। निर्जरा का कारण शुभ योग का क्षायिक, क्षायोपशमिक या औपशमिक स्वभाव है और पुण्य-बन्ध का कारण औदयिक स्वभाव है। इसे इस प्रकार कहा जा सकता है कि एक ही शुभ योग दो स्वभाव वाला है और उसके दो स्वभावों से ही दो काम होते हैं, एक स्वभाव से नहीं। जैसे एक ही सूर्य अपने दो स्वभावों से ही दो काम करता है-प्रकाश करता है और गरमी बढाता है। दीपक जलता है, उससे प्रकाश होता है और काजल भी बनता है। स्थूल-दृष्टि से यही जाना जाता है कि दीपक के एक ही स्वभाव से प्रकाश होता है और काजल बनता है, किंतु वास्तव में जो तेजोमय अग्नि, है उस कारण से प्रकाश होता है और तेल-बत्ती जलते हैं उस कारण से कार्बन (कोयले का अंश) जमा होकर काजल बनता है। गेहूं बोने से गेहूं निपजता है परन्तु साथ में तुड़ी भी होती है। शुभ योग रूपी गेहूं से निर्जरा रूपी गेहूं उपजता है, परन्तु पुण्य-रूपी तुड़ी से रहित नहीं उपज सकता, क्योंकि शुभ योग की वैसी स्थिति कहीं भी नहीं होती जहां नाम-कर्म का उदय न रहे, इसलिए जहां शुभ योग से निर्जरा होती है वहां पुण्य अवश्य बन्धता है। इस विषय में एक बात और ध्यान में रखने की है कि निर्जरा शुभ योग से होती है न कि शुभ योग आश्रव से। प्रश्न-शुभ योग से निर्जरा होती है और निर्जरा से मुक्ति होती है, परन्तु शुभ योग के साथ-साथ शुभ कमों का बन्ध भी चालू रहता है तब मुक्ति कैसे हो सकती है? उत्तर--आत्मा कर्म से इतनी आवृत है कि एक साथ उसकी मुक्ति नहीं होती। क्रमशः प्रयत्न करते-करते जैसे-जैसे निर्जरा बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे आत्मा विशुद्ध बनती जाती है। आत्मा के साथ कर्म-परमाणुओं का सम्बन्ध मुख्यतः कषाय एवं योग की सहायता से होता है। जब कषाय प्रबल होता है तभी कर्म-परमाणु आत्मा के साथ अधिक संख्या में चिपकते हैं, अधिक काल तक रह सकते हैं और तीव्र फल देते हैं। जब कषाय निर्बल हो जाता है तब उसका बन्धन भी बलवान नहीं होता। प्रश्न-शुभ योग मुक्ति का साधक है या बाधक ? उत्तर-वह साधक भी है और बाधक भी। शुभ योग से निर्जरा होती १. जयाचार्य ने लिखा हैशुभ योगां ने सोय रे, कहिये आश्रव निर्जरा। तास न्याय अवलोय रे, चित्त लगाई सांभलो ।। शुम जोगां करी तास रे, कर्म कटे तिण कारणे। कही निर्जरा जास रे, करणी लेखे जाणवी।। ते शुभ जोग करीज रे, पुण्य बन्ये तिण कारणे। आश्रव जास कही ज रे, वारूं न्याय विचारिये।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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