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________________ ७८ जीव-अजीव वस्तुओं ही प्राप्ति होती है। मुनि को जो अन्न देने की प्रवृत्ति है, वह शुभ काययोग है और वह पुण्य का कारण है। तो भी कारण का कार्य में उपचार करके उस अन्न देने की क्रिया को ही पुण्य कह दिया जाता है। प्रश्न--धर्म और पुण्य में क्या अन्तर है ? उत्तर--साधारण भाषा में धर्म और पुण्य-इन दोनों शब्दों का अर्थ एक ही किया जाता है, किंतु तात्त्विक दृष्टि से धर्म और पुण्य में आकाश-पाताल का अन्तर है। मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग आश्रव का निरोध करना संवर-धर्म है। मन, वचन और काया की शुभ प्रवृत्ति करना निर्जरा-धर्म है। जिस समय शुभ-योग की प्रवृत्ति होती है, उस समय आत्मा के साथ जिन शुभ पुद्गलों का सम्बन्ध होता है वह द्रव्य-पुण्य या सत्कर्म का बन्ध कहलाता है और जिस समय वे सम्बन्धित कर्म उदय में आकर आत्मा को फल देते हैं उस शुभ-कर्म की उदीयमान अवस्था का नाम पुण्य है। धर्म आत्मा का उज्ज्वल परिणाम है और पुण्य पौद्गलिक है, भौतिक सुख का कारण है। प्रश्न--अधर्म और पाप में क्या अन्तर है ? । उत्तर--मिथ्यात्व आदि चार आश्रव और अशुभ योगमय जो आत्मपरिणाम है वह अधर्म है और इस आत्मीय अवस्था से जो अशुभ पुद्गल आत्मा के साथ सम्बन्धित होते हैं, वह अशुभ कर्म का बन्ध है और यह बन्ध जब उदीयमान अवस्था को प्राप्त होता है तब वह पाप कहलाता है। अधर्म आत्मा का मलिन परिणाम है और पाप ज्ञान आदि आत्म-गुणों को आवृत करने वाला तथा दुःख देने वाला पुद्गल-समूह है। प्रश्न--पुण्य की उत्पत्ति स्वतंत्र है या नहीं? धर्म के बिना पुण्य का बन्ध होता है या नहीं? उत्तर--आत्मा की जितनी क्रिया होती है, उसके दो प्रकार हैं-अशुभ एवं शुभ। अशुभ से पाप-कर्म का बन्ध होता है और शुभ क्रिया से दो कार्य होते हैं--एक मुख्य, दूसरा गौण । शुभयोग की प्रवृत्ति से मुख्यतया कर्म-निर्जरा होती है और उसके प्रासंगिक फल के रूप में पुण्य-बंध होता है। यह पुण्य-बंध का स्वरूप है। अब इस विषय में ध्यान देने की बात यह है कि अशुभ प्रवृत्ति से तो पुण्य का बन्ध होता ही नहीं और जहां कहीं शुभ प्रवृत्ति होगी वहां निर्जरा अवश्य होगी। निर्जरा से आत्मा उज्ज्वल होती है, अतः वह धर्म है। इसके सिवाय कोई भी ऐसा स्थान नहीं रह जाता है, जहाँ धर्म के साहचर्य के बिना पुण्य का बन्ध होता हो। यह भी निश्चित है कि शुभ या अशुभ प्रवृत्ति के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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