SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौदहवां बोल ७७ कारण भी उपादान नहीं, निमित्त हैं। प्रत्येक काम में उपादान, निमित्त और कहीं-कहीं निर्वर्तक-इन तीन कारणों की आवश्कता होती है। घड़े का उपादान कारण है मिट्टी, निमित्त कारग है चक्र-सूत, प्रमुख सामग्री और निर्वर्तक कारण है कुम्हार । इसी प्रकार पुण्य का उपादान कारण है पुण्य के रूप में परिणत होने वाला पुद्गल-समूह, निमित्त कारण है अन्नपान आदि पदार्थ और निर्वर्तक (उत्पादक) कारण है शुभ-योग की प्रवृत्ति और शुभ नाम-कर्म का उदय। अन्न पुण्य का निमित्त कारण है, पानी पुण्य का निमित्त कारण है, वैसे ही स्थान, शय्या, पाट, बाजोट, वस्त्र आदि सब पुण्य के निमित्त कारण हैं। __ पुण्य के नौ भेद मुनि को लक्ष्य कर किए गए हैं, ऐसा अनुमान किया जाता है। मुनि को अन्न-पान आदि की आवश्यकता होती है, सोना-चांदी आदि की नहीं। अतः आवश्यकतानुसार मुनि को अन्न-पान आदि का दान देना, दान देने के सम्बन्ध में मन, वचन तथा काया की प्रवृत्ति शुद्ध रखना और साधु को नमस्कार करना, यह श्रावक-जीवन का अंग है। पुण्य की उत्पत्ति धार्मिक क्रिया के बिना हो नहीं सकती। इसलिए उसे धर्म के बिना नहीं हो सकने वाला (धर्माविनाभावि पुण्यम्) कहा गया है। जीद की मानसिक, वाचिक व कायिक जो शुभ प्रवृत्ति होती है, वह धार्मिक क्रिया है। उससे आत्मा विशुद्ध बनती है और उस विशुद्धि के साथ-साथ शुभ कर्म का संचय होता है। उस शुभकर्म के संचय को बंध या द्रव्य-पुण्य कहा जाता है। पूर्व-संचित शुभ-कर्म जब उदय में आते हैं, शुभ फल देते हैं तब उनको पुण्य कहा जाता है। साधारणतया (उपचार से) क्रिया को अर्थात् शुभयोग .की प्रवृत्ति को भी पुण्य कह देते हैं, किन्तु वास्तव में क्रिया पुण्य का कारण है, पुण्य नहीं। पुण्य तो क्रिया-जनित फल है। फल भी मुख्य नहीं, किन्तु प्रासंगिक है। मुख्य फल तो निर्जरा (आत्मा की उज्ज्वलता) है। खेती का मुख्य फल धान होता है, पलाल नहीं। शुभयोग की प्रवृत्ति आत्मा की उज्ज्वलता के लिए करनी चाहिए, पुण्य के लिए नहीं। प्रश्न--एक ही शुभ योग की प्रवृत्ति से निर्जरा और शुभ कर्म का संचय-ये दो काम कैसे हो सकेंगे? उत्तर--एक मुख्य फल के साथ-साथ आनुषंगिक फल अनेक होते ही हैं। धान के लिए की हुई खेती में भी धान के साथ-साथ अनेक प्रकार की दूसरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy