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________________ ७४ कोई भी मनुष्य कायिक- हिंसक नहीं बनता । बादर एकेन्द्रिय के भी एक जीव का एक शरीर हमारी दृष्टि का विषय नहीं होता । हम जो देखते हैं, उन असंख्य जीवों के असंख्य शरीरों का एक पिण्ड होता है । परन्तु समुदित अवस्था में देखे जाते हैं, इसलिए वे बादर ही हैं । एकेन्द्रिय के सिवाय चार भेद और किसी जाति के होते हैं तो पंचेन्द्रिय के होते हैं। जैसे एकेन्द्रिय जीव की सूक्ष्म और बादर- ये दो श्रेणियां है, वैसे ही पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी (समनस्क) और असंज्ञी ( अमनस्क)- इन दो भागों में विभाजित हैं। जीव-अजीव चतुरिन्द्रिय तक के जीवों के मन नहीं होता। इसलिए मन के आधार पर उनके विभाग नहीं किए जाते। पंचेन्द्रिय जीव, जो संमूर्च्छन- जन्म से उत्पन्न होते हैं, उनके मन नहीं होता, शेष पंचेन्द्रय जीवों के मन होता है। जीवों के चौदह भेद हैं ७८. १२. सूक्ष्म - एकेन्द्रिय के दो भेद - अपर्याप्त और पर्याप्त । ३-४. बादर एकेन्द्रिय के दो भेद - अपर्याप्त और पर्याप्त । ५- ६. द्वीन्द्रिय के दो भेद - अपर्याप्त और पर्याप्त । त्रीन्द्रिय के दो भेद - अपर्याप्त और पर्याप्त । ६-१०. चतुरिन्द्रिय के दो भेद - अपर्याप्त और पर्याप्त । ११-१२. असंज्ञी पंचेन्द्रिय के दो भेद - अपर्याप्त और पर्याप्त । १३-१४. संज्ञी पंचेन्द्रिय के दो भेद - अपर्याप्त और पर्यात | उक्त चौदह भेद शरीर धारण करने वाले प्राणियों के हैं। जीव परिमाण (संख्या) में अनन्त हैं। प्रदेश परिमाण और चेतना लक्षण से जीव समान हैं, फिर भी कर्मों की विविधता से उनके अनेक भेद हो जाते हैं। जैसे-- कोई जीव सूक्ष्म शरीर वाला होता है, कोई स्थूल शरीर वाला होता है । कोई एक इन्द्रिय वाला, कोई दो, तीन, चार और पांच, इन्द्रिय वाला। कोई संज्ञी (मन-सहित) होता है तो कोई असंज्ञी (मन-रहित ) । इनमें कर्म-जनित भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के कारण एक ही स्वरूप वाले जीव अनेक स्वरूप वाले प्रतीत होते हैं। इस प्रकरण में जो जीव के चौदह भेद किए गए हैं, वे सब उत्पत्ति के समय मिलने वाली पौद्गलिक रचना ( पर्याप्ति) की दृष्टि से किए गए हैं। पौद्गलिक रचना की योग्यता सब जीवों में समान रूप से नहीं होती । एक इन्द्रिय वाले जीव आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास- इन चार पर्याप्तियों के अधिकारी होते हैं । द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव मनः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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