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जीव-अजीव
है। इन चारों को मोक्ष मार्ग न समझना और उनसे भिन्न को मोक्ष का मार्ग समझना मिथ्यात्व है। जीव-अजीव
जैन दर्शन में जीव-अजीव के अन्तर को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से बड़ी बारीकी से समझाया गया है। आत्म-विकास की ओर अग्रसर होने वाले व्यक्ति को जीव-अजीव के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होना बहुत जरूरी है। जीव-अजीव का स्वरूप जाननेवाला ही संयम का स्वरूप जान सकता है।
जीव का लक्षण है चेतना। चेतना-लक्षण ही जीव को अजीव से, जड़ पदार्थ से अलग करता है। जिसमें चेतनता हो, वह जीव है और जिसमें चेतना न हो, वह अजीव है। जीव में अजीव की श्रद्धान करना और अजीव में जीव का विश्वास करना मिथ्यात्व है। साधु-असाधु
साधु का लक्षण है--सम्पूर्ण रूप से पंच महाव्रत पालन करना । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, इन पांच महाव्रतों का पालन करने वालों को असाधु और न करनेवालों को साधु समझना मिथ्यात्व है। मुक्त-अमुक्त
मुक्त आत्मा का लक्षण है-आठ कर्मों से मुक्ति या छुटकारा पाना। मुक्त कर्म-रहित होते हैं। जो कर्म-रहित हैं, उनको कर्म-सहित समझना और जो कर्म-सहित हैं उनको कर्म रहित समझना मिथ्यात्व है।
धर्म, मार्ग, जीव, साधु और मुक्त-ये पांच तत्त्व आध्यात्कि भवन के विशाल स्तम्भ हैं। जीव या आत्मा मूल भित्ति है। धर्म और मार्ग--दोनों उसकी उन्नति के साधन हैं। साधु आत्मोन्नति का कार्य-क्षेत्र है, क्योंकि धर्म या मार्ग की साधना साधु-अवस्था में ही सुचारु रूप से सम्भव है। साधना का अन्तिम लक्ष्य या उत्कृष्ट फल मोक्ष है।
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