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तेरहवां बोल
दस प्रकार के मिथ्यात्व
१. धर्म को अधर्म समझना ६. अजीव को जीव समझना २. अधर्म को धर्म समझना ७. साधु को असाधु समझना ३. मार्ग को कुमार्ग समझना ८. असाधु को साधु समझना ४. कुमार्ग को मार्ग समझना ६. मुक्त को अमुक्त समझना ५. जीव को अजीव समझना १०. अमुक्त को मुक्त समझना
विपरीत श्रद्धान रूप जीव के परिणाम को मिथ्यात्व कहते हैं। जो बात जैसी हो, वैसी न मानना या विपरीत मानना मिथ्यात्व है।
वस्तु का स्वरूप लक्षण से जाना जाता है। लक्षण ही वस्तु का विभाग करता है। लक्षण की परिभाषा है--मिली हुई वस्तुओं को अलग-अलग करना। इस बोल में आए हुए धर्म, अधर्म, जीव आदि वस्तुओं के लक्षणों का ज्ञान जरूरी है। इनके जानने से ही हम बोल के वास्तविक रहस्य को समझ सकते
धर्म-अधर्म
जिससे आत्म-स्वरूप की उन्नति एवं अभ्युदय हो, उसे धर्म कहते हैं। आत्म-स्वरूप का पूर्ण उदय मोक्ष है। धर्म दो प्रकार के माने गये हैं-संवर और निर्जरा। संवर का अर्थ है-नये कर्मों के प्रवेश को रोकना और निर्जरा का अर्थ है-पहले बंधे हुए कर्मों का नाश करना। संवर से आत्मिक उज्ज्वलता की रक्षा होती है और निर्जरा से आत्मा उज्ज्वल होती है। दूसरे शब्दों में संवर आत्म-संयम और निर्जरा है सत्प्रवृत्ति।
धर्म को अधर्म समझना ओर अधर्म को धर्म समझना ही मिथ्यात्व है। मार्ग-कुमार्ग
ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप-ये चार मोक्ष के मार्ग हैं, साधन हैं, उपाय हैं । ज्ञान द्वारा आत्मा पदार्थों के वास्तविक स्वरूप को जानती है। दर्शन द्वारा उन पर श्रद्धा करती है। चारित्र द्वारा आत्मा नवीन कर्मों के प्रवेश को रोकती है एवं तप द्वारा पुराने कर्मों का विनाश कर आत्मा शुद्ध होती है, निर्मल होती
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