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जीव-अजीव
दो-तिहाई भाग सघन। आत्मा जिस अन्तिम शरीर से मोक्ष प्राप्त करती है उसका दो-तिहाई भाग जो सघन होता है उतने जीवात्मा के प्रदेश सिद्धस्थान में फैल जाते हैं। इसे उस जीवात्मा की अवगाहना कहते हैं। भिन्न-भिन्न सिद्धात्माओं के प्रदेश परस्पर अव्याघात रहने से एक-दूसरे से टकराते नहीं। प्रत्येक आत्मा अपना स्वतन्त्र अस्तित्व कायम रखती है। एक ही कमरे में हजारों दीपक रहने पर भी उनका प्रकाश एक-दूसरे से टकराता नहीं परन्तु समूचे कमरे में प्रत्येक दीपक का प्रकाश व्याप्त हो जाता है। ऐसी परम निर्मल आत्माएं वीतराग, वीतमोह और वीतद्वेष होती हैं। अतः उनका इस संसार में पुनरागमन नहीं होता। गुणस्थानों का कालमान
प्रथम गुणस्थान वाली आत्माओं के संसार-भ्रमण की कोई सीमा नहीं होती। मोक्ष में नहीं जाने वाले जीवों का यही अक्षय भण्डार है। प्रथम गुणस्थान के अतिरिक्त किसी भी अवस्था में जीव अनन्त काल तक नहीं रह सकता। इसकी समुद्र से तुलना होती है और अन्य अवस्थाओं की छोटे जलाशयों के साथ तुलना की जा सकती है। यह अवस्था अभव्य जीवों के लिए अनादि और अनन्त है और भव्य--मोक्ष जानेवाले जीवों के लिए अनादि और सान्त--अन्त-सहित है। जो जीव मिथ्यात्व को त्याग, सम्यक्त्व प्राप्त कर फिर मिथ्यात्वी बन जाते हैं और उसके बाद सम्यक्त्व को पुनः प्राप्त करते हैं, उनकी अपेक्षा से पहला गुणस्थान आदि-सहित और अन्त-सहित है। इसके सिवाय सब सादि-सान्त हैं-आदि सहित और अन्त सहित हैं। शेष गुणस्थानों का कालमान
दूसरे गुणस्थान का कालमान छह आवलिका। चौथे गुणस्थान का कालमान तेतीस सागर से कुछ अधिक। पांचवे, छठे और तेरहवें गुणस्थान का कालमान कुछ कम करोड़ पूर्व। चौदहवें गुणस्थान का कालमान पांच हृस्वाक्षर( अ, इ, उ, ऋ, लु ) उच्चारण मात्र । शेष गुणस्थानों का कालमान अन्तर्मुहूर्त।
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