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ग्यारहवां बोल
करने वाली आत्मा चतुर्थ गुणस्थान से तीसरे गुणस्थान में चली जाती है। स्थिति का परिपाक होने पर तथा सारी उपयुक्त सामग्री मिलने पर आत्मा का एक आन्तरिक प्रयत्न होता है, उसमें ग्रन्थिभेद हो जाता है--मोह की प्रबल गांठ, जो पहले कभी नहीं खुली, खुल जाती है। सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है । यह चतुर्थ भूमिका है। सम्यग्दृष्टि प्राप्त होने पर संयम का सावधिक (मर्यादित) अभ्यास प्रारम्भ होता है। यह पांचवी भूमिका है। जब वह संयम के निरवधिक (अमर्यादित) अभ्यास में प्रवृत्त होती है तब उसकी भूमिका केवल संयम की बन जाती है । संसाराभिमुखता छूट जाती है। उसे उत्तरोत्तर आत्मानन्द का अनुभव होता है। उससे वह सातवीं अवस्था में चली जाती है। जब उत्साह में कुछ 'कमी आ जाती है तब सातवीं से छठी आ जाती है फिर उत्कटता आयी और सातवीं । सातवीं गई, फिर छठी। सातवीं और छठी अवस्था का यह क्रम बराबर चालू रहता है।
आठवीं अवस्था में मोह को नष्ट करने के लिए अधिक आत्मबल की आवश्यकता होती है । इस अवस्था में अभूतपूर्व आत्मविशुद्धि होती है, अतः इसे अपूर्वकरण भी कहते हैं। इससे दो श्रेणियां निकलती हैं-उपशम और क्षपक। नौवीं में क्रोध, मान और माया को, दसवीं में लोभ को उपशांत तथा क्षीण कर उपशम श्रेणी वाला ग्यारहवीं में और क्षपक श्रेणी वाला बारहवीं में चला जाता है। ग्यारहवीं अवस्था वाला मोह को दबाता दबाता बढ़ता है, इसलिए उसके अन्तर्मुहूर्त्त के बाद उस गुणस्थान से उसके नीचे के गुणस्थानों में जाना अवश्यंभावी बन जाता है। बारहवीं अवस्था वाला मोह को क्षीण करता हुआ आगे बढ़ता है, अतः वह तेरहवीं अवस्था में सम्पूर्ण ज्ञान को प्राप्त कर लेता है। आत्मा पहले मनोयोग का, उसके बाद वाक्योग का और उसके बाद काययोग का निरोध कर चौदहवीं अवस्था को प्राप्त कर लेती है। वह अल्पकालीन है। उसके बाद आत्मा मुक्त हो जाती है। मुक्त आत्मा का ऊर्ध्वगमन
शुद्ध चेतना की स्वाभाविक गति ऊर्ध्व है। अतः मुक्त आत्मा वहां तक चली जाती है जहां तक उसकी गति में धर्मास्तिकाय सहायक रहता है। उसके आगे गति हो नहीं सकती, इसलिए वह शुद्ध आत्मा वहीं स्थिर हो जाती है। यह स्थान लोक के अन्तिम भाग पर है। इसे सिद्धिगति, सिद्धशिला या मोक्ष कहते हैं।
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पुक्त आत्मा की स्थिति
शरीर का एक-तिहाई भाग (मुख, कान, पेट आदि) पोला होता है और
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