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सर्वथा
है ।
मुक्त
और स्वतन्त्र हो जाता है। उसका संसारी जीवन समाप्त हो जाता
जीव-अजीव
प्रश्न -- गुणस्थानों के निर्माण का आधार क्या है ?
उत्तर - आत्मा में पांच प्रकार के मालिन्य हैं। पहला मालिन्य है मिथ्यात्व, जो सम्यक् श्रद्धा को आच्छादित कर बुद्धि को विपरीत बनाता है। दूसरा मालिन्य है अविरति, जो आत्मा को आशा तृष्णा के पाश में डालता है। तीसरा मालिन्य है प्रमाद, जो आत्मा के सतत उत्साह को भंग कर उसे प्रमादी बनाता है | चौथा मालिन्य है कषाम, जो आत्मा को प्रज्वलित करता है। पांचवां मालिन्य है योग, जो आत्मा को चंचल बनाता है। ये मालिन्य जैन परिभाषा में आश्रव कहलाते हैं । इन आश्रवों एवं मोहनीय कर्म की प्रबलता और निर्बलता पर ही जीव की चौदह अवस्थाओं का निर्माण होता है । जितना-जितना मालिन्य हटता है, उतनी उतनी आत्म-विशुद्धि होती है और इसी विशुद्धि का नाम गुणस्थान है।
गुणस्थानों का विकास क्रम
पहली अवस्था में विपरीत बुद्धि बनी की बनी रहती है । भौतिक को सार और आध्यात्मिक को असार समझने की भावना बलवती रहती है। यह ठीक वस्तुस्थिति को उलटने वाली मनोदशा है। ऐसी परिस्थिति होने पर जो-जो ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का क्षयोपशम (परिमित रूप से अभाव) है, वह गुणस्थान है। किन्तु जो मिथ्यात्व है, तत्त्व - ज्ञान के प्रति विपरीत आस्था है, वह गुणस्थान नहीं है। मिथ्यादृष्टि में समता है, जिससे वह गुणस्थान का अधिकारी बनता है । मिथ्यादृष्टि में जो यथास्थित ज्ञान या सम्यक् आचरण होता है, वह उसका गुणस्थान है। मिथ्यात्वी गाय को गाय जानता है, भैंस को भैंस जानता है, और भी जो-जो वस्तुएं जिस रूप में हैं, वह उनको वैसे ही जानता है। वह उसका जानना ठीक है और गुणस्थान है। उसमें तत्त्व की रूचि नहीं होती, इसी कारण वह मिथ्यात्व कहलाता है । मिध्यात्वी का सारा आचरण ही मिथ्या नहीं होता । उसमें मोक्ष मार्गानुसारी आचरण भी होता है । इस अवस्था में अल्प विकास होता है, पर यह विकास क्रम की कोटि में नहीं है।
दूसरी अवस्था आध्यात्मिक विकास क्रम की नहीं, परन्तु आध्यात्मिक विकास के पतन की है । पतन का अन्तराल काल दूसरी अवस्था है।
तीसरी अवस्था पर उत्क्रान्ति व अपक्रान्ति करने वाली आत्मा का अधिकार है । उत्क्रान्ति करने वली आत्मा प्रथम गुणस्थान से और अपक्रान्ति
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