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________________ ग्यारहवां बोल ६३ लोभ) से मुक्त हो जाती है। ६. अनिवृत्तिबादर-गुणस्थान-जिसमें स्थूल कषाय की अनिवृत्ति होती है (अर्थात् कषाय थोड़ी मात्रा में रहता है) उसे अनिवृत्तिबादर कहा जाता है। इस अवस्था में आत्मा कषाय मे प्रायः निवृत्त हो जाती है। आठवें गुणस्थान में कषाय की निवृत्ति थोड़ी मात्रा में होती है, इसलिए उसे निवृत्तिबादर कहा गया है। नवें गुणस्थान में कषाय थोड़ी मात्रा में शेष रहता है, इसलिए उसे अनिवृत्तिबादर कहा गया है। आठवें गुणस्थान का नाम, जो कषाय निवृत्त हुआ, उसके आधार पर किया गया है। नवें गुणस्थान का नाम, जो कषाय निवृत्त नहीं हुआ, उसके आधार पर किया गया है। १०. सूक्ष्म-सम्पराय गुणस्थान-सम्पराय का अर्थ है--लोभ-कषाय। जिसमें लोभ-कषाय सूक्ष्म अंश में विद्यमान हो, उसके गुणस्थान को सूक्ष्म-सम्पराय गुणस्थान कहा जाता है। इस अवस्था में क्रोध, मान, माया-ये तीन कषाय उपशांत या क्षीण हो जाते हैं सिर्फ लोभ-कषाय अल्प मात्र में रहता है। ११. उपशांत-मोह गुणस्थान-जिसका मोह अंतर्मुहूर्त तक उपशांत हो जाता है, उसके गुणस्थान को उपशांत-मोह गुणस्थान कहा जाता है। इस अवस्था में अवशिष्ट लोभ का उपशम होता है, किन्तु समूल विच्छेद नहीं। वह राख से ढंकी हुई आग की तरह पुनः भभक जाता है। १२. क्षीण-मोह गुणस्थान-जिसका मोह-कर्म सर्वथा क्षीण हो जाता है, उसके गुणस्थान को क्षीण- मोह गुणस्थान कहा जाता है। इस अवस्था में मोह सर्वथा क्षीण हो जाता है। पूर्व-अवस्था में संज्वलन लोभ का अस्तित्व नहीं मिटता। इस अवस्था में वह पूर्ण रूप से मिट जाता है। आत्मा पूर्ण वीतराग हो जाती है। १३. सयोगी-केवली गुणस्थान-जो केवली सयोगी होता है, मन, वचन और काया की प्रवृत्ति से युक्त होता है, उसके गुणस्थान को सयोगी-केवली गुणस्थान कहा जाता है। इस अवस्था में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय-ये घाति-कर्म सर्वथा क्षीण होते हैं। आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और अन्तराय रहित हो जाती है। १४. अयोगी केवली गणस्थान-जो केवली अयोगी होता है-मन,वचन और काया की प्रवृत्ति से रहित होता है, उसके गुणस्थान को अयोगी-केवली गुणस्थान कहा जाता है। इस अवस्था में केवली मन, वाणी और काया की प्रवृत्ति का निरोध कर अयोगी बन जाता है। वह अनादिकालीन कर्म-बन्धन को तोड़कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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