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ग्यारहवां बोल
गुणस्थान चौदह १. मिथ्या दृष्टि
८. निवृत्तिबादर २. सास्वादन-सम्यग्दृष्टि ६. अनिवृत्तिबादर ३. मिश्र दृष्टि
१०. सूक्ष्म-संपराय ४. अविरत-सम्यग्दृष्टि ११. उपशांत-मोह ५. देश-विरति
१२. क्षीण-मोह ६. प्रमच-संयत
१३. सयोगी-केवली ७. अप्रमत-संयत
१४. अयोगी केवली. आत्मिक गुणों के अल्पतम विकास से लेकर उसके सम्पूर्ण विकास तक की समस्त भूमिकाओं को जैन-दर्शन में चौदह भागों में बांट दिया गया है, जिनको गुणस्थान कहते हैं। आत्मा की निर्मलता से गुणस्थान क्रमशः ऊंचे होते हैं और मलिनता से नीचे। १. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान-जिसकी तत्त्व-श्रद्धा विपरीत हो, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है। उसके गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहा जाता है।
मिथ्यादृष्टि व्यक्ति की क्षायोपशमिक दृष्टि का नाम भी मिथ्यादृष्टि है, उसे भी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहा जा सकता है।
ये दोनों मिथ्यादृष्टि गुणस्थान की परिभाषाएं हैं। पहली परिभाषा में गणी (व्यक्ति) को लक्ष्य कर उसमें पाए जाने वाले गुण को गुणस्थान कहा है और दूसरी में व्यक्ति को गौण मानकर केवल क्षायोपशमिक दृष्टि को ही गुणस्थान कहा है। इन दोनों का अर्थ एक है। निरूपण के प्रकार दो हैं। पहली के अनुसार विपरीत-दृष्टि वाले पुरुष में जो क्षायोपशमिक गुण है, वह मिथ्यात्वी पुरुष में होने के कारण मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहलाता है। २. सास्वादन-सम्यगदृष्टि गुणस्थान-जिसकी दृष्टि सम्यक्त्व के किंचित स्वाद-सहित होती है, उस व्यक्ति के गुणस्थान को सास्वादन-सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहा जाता है।
सम्यग्दृष्टि व्यक्ति उपशम सम्यक्त्व से च्युत होकर जब तक पहले
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