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________________ दसवां बोल कर्म-बन्ध सहेतुक है। जब तक कर्म-बन्ध का कारण विद्यमान रहता है तब तक कर्म बंधता जाता है और अपना फल देने की अवधि पूर्ण होने पर अलग हो जाता है। जब आत्मा कर्म-बंध का द्वार रोक देती है, कर्म-बंध के कारणभूत आश्रव का निरोध कर देती है, उस समय कर्म का बन्ध रुक जाता है और जो कर्म पहले के बंधे हुए होते हैं, वे उदय में आकर नष्ट हो जाते हैं या उदीरणा से उदय में लाकर नष्ट कर दिये जाते हैं और तब आत्मा की मुक्ति हो जाती है। प्रश्न--कर्म जड़ हैं। वे यथोचित फल कैसे दे सकते हैं? उत्तर--यह ठीक है कि कर्म-पुद्गल यह नहीं जानते कि अमुक आत्मा ने यह काम किया है, अतः उसे यह फल दिया जाए। परन्तु आत्मक्रिया के द्वारा जो शुभाशुभ पुद्गल आकृष्ट होते हैं, उनके संयोग से आत्मा की वैसी ही परिणति हो जाती है, जिससे आत्मा को उसके अनुसार फल मिल जाता है। शराब को नशा करने की ताकत का कब अनुभव होता है और विष ने मारने की बात कब सीखी ? फिर भी शराब पीने से नशा होता है और विष खाने से मृत्यु । पथ्य भोजन आरोग्य देना नहीं जानता और दवा रोग मिटाना नहीं जानती, फिर भी पथ्य भोजन से स्वास्थ्य लाभ होता है और औषधि-सेवन से रोग मिटता है। बाह्य रूप से ग्रहण किए हुए पुद्गलों का जब इतना असर होता है तो आन्तरिक प्रवृत्ति से गृहीत कर्म-पुद्गलों का आत्मा पर असर होने में सन्देह कैसा ? उचित साधनों के सहयोग से विष और औषधि की शक्ति में परिवर्तन किया जा सकता है, वैसे ही तपस्या आदि साधनों से कर्म की फल देने की शक्ति में भी परिवर्तन किया जा सकता है। अधिक स्थिति के एवं तीव्र फल देने वाले कर्म में भी उनकी स्थिति और फल देने की शक्ति में अपवर्तना के द्वारा न्यूनता की जा सकती है। प्रश्न--प्रत्येक आत्मा सुख चाहती है, दुःख नहीं। तो फिर वह पाप का फल स्वयं क्यों भोगेगी? उत्तर--इस पर इतना कहना काफी होगा कि सुख और दुःख आत्मा के पुण्य-पाप के अनुसार मिलते हैं या चाहने के अनुसार ? यदि चाहने के अनुसार मिलें तब तो कर्म कोई चीज ही नहीं। जो कुछ इच्छा की, वही मिल गया। ऐसी हालत में तो बस इच्छा ही सार है, चाहे उसे चिन्तामणि कहें, चाहे कल्पवृक्ष । यदि कर्म कोई वस्तु है तब तो उसके अनुसार ही फल मिलेगा। अच्छे कर्म का अच्छा फल होगा, बुरे कर्म का बुरा । 'बुद्धिः कर्मानुसारिणी'-इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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