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जीव-अजीव
छोटे-से वाक्य से यह विषय और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है। जैसा कर्म होता है वैसी ही बुद्धि हो जाती है। जैसी बुद्धि है, होती वैसा ही काम किया जाता है और जैसा काम किया जाता है, वैसा ही फल मिलता है। अतएव कर्म का फल भोगने में किसी न्यायाधीश की जरूरत नहीं। एक मनुष्य अपने पूर्वकृत कर्मों के बल पर हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, व्यभिचार-दुराचार-सेवन करता है। न्यायाधीश का क्या काम बिगड़ता था कि उसे कर्म का फल देने को इन निंदनीय कार्यों में प्रवृत्त करना पड़ा ? न्यायाधीश तो बुरी आदतों को छुड़ाने के लिए कर्म का फल देता है तो फिर हिंसा, चोरी आदि से कर्म-फल भुगताने का तरीका क्यों पसन्द किया गया। उस परमदयालु न्यायाधीश ईश्वर के द्वारा ?
___ जैन-दर्शन के अनुसार यह सृष्टि अनादि और अनन्त है। सृष्टि का न तो कभी आरम्भ ही हुआ और न कभी अन्त ही होगा। इस सृष्टि को उत्पन्न करने वाला कोई नहीं है। अन्य दर्शनों के अनुसार संसार सृष्टि है--एक कार्य है, इसलिए उसका कर्ता भी अवश्य है और उसी का नाम ईश्वर है। इस तर्क को मान लेने से कई प्रश्न उठ खड़े होते हैं। जैसे
यदि प्रत्येक कार्य का संचालक ईश्वर हो तो जीवों को सुख-दुःख देने में ईश्वर के ऊपर पक्षपाती होने का दोष आता है। जो जीव सुखी हैं उन पर ईश्वर का प्रेम और जो दुःखी हैं उन पर ईश्वर का द्वेष है। ऐसे ईश्वर की आत्मा राग-द्वेष से मलिन है, अतः हम ऐसे ईश्वर को परमात्मा कैसे माने?
__ यदि सृष्टि उत्पन्न करने वाली किसी शक्ति को मानें तो उसका कर्ता अथवा स्वामी भी किसी को मानना पड़ेगा और फिर उसका स्वामी। इस तरह एक के बाद एक ऐसे स्वामियों की कतार-सी लग जायेगी, जो अनन्त तक चली जायेगी, फिर भी स्वामी का अन्त नहीं दीखेगा। ईश्वर को कर्त्ता मान लेने से पुरुषार्थ के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता । जैसी कर्ता के जची, वैसी सृष्टि कर डाली।
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा ही अपने कर्मों की कर्ता है और सुख-दुःख की भोक्ता है। परमात्मा राग-द्वेष-रहित है, उसको संसार से मतलब ही क्या ?
प्रश्न--परिस्थिति के अनुसार एक साथ लाखों आदमी मर जाते हैं। जो धर्मिष्ट हैं, वे दुःखी देखे जाते हैं, जो पापी हैं, वे सुखी देखे जाते हैं। अतः इन सबका कारण परिस्थिति ही है, कर्म क्यों?
उत्तर -युद्ध में जो एक साथ लाखों मनुष्य मरते हैं इसका कारण
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