SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव-अजीव क्या था और बाद में क्या किया ? इनका कोई भी सन्तोषजनक समाधान नहीं हो सकता । अतः इनका अनादि (अपश्चानुपूर्वी) सम्बन्ध ही संगत एवं युक्तियुक्त प्रश्न-आत्मा अमूर्त (अरूपी) है और कर्म मूर्त (रूपी) है। फिर इन दो विरोधी वस्तुओं का सम्बन्ध कैसे हो सकता है? उत्तर-अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्म का बन्धन नहीं हो सकता, परन्तु संसारी आत्मा के एक-एक आत्म-प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्म-परमाणु चिपके हुए होते हैं, अतः आत्मा अमूर्त होती हुई भी कार्मण शरीर के सम्बन्ध से मूर्तवत् होती है। वह कार्मण-शरीर प्रवाह रूप से अनादि सम्बन्ध वाला है। उस कार्मण-शरीर की विद्यमानता में ही आत्मा के कर्म-परमाणु चिपकते हैं। जब कार्मण-शरीर का नाश हो जाता है तब आत्मा अमूर्त हो जाती है और ऐसी आत्मा को कर्म भी नहीं पकड़ सकते। ताप्तर्य यह है कि जब तक आत्मा में कर्म-बन्ध का कारण विद्यमान रहता है। तब तक कार्मण-शरीर के द्वारा कर्म-पुद्गल आत्मा के साथ सम्बन्ध कर सकते हैं, अन्यथा नहीं। यद्यपि मुक्त आत्माएं भी पुद्गल-व्याप्त आकाश में स्थित हैं, किन्तु उन आत्माओं में कर्म-बन्ध के कारणों का अत्यन्ताभाव है, इसलिए पुद्गल वहां रहते हुए भी उन्मुक्त आत्माओं से सम्बन्ध नहीं कर सकते और बिना सम्बन्ध के वे आत्मा का कुछ भी नहीं कर सकते। जो पुद्गल आत्म-प्रवृत्ति द्वारा ग्रहण नहीं किए जाते, यों ही लोक में फैले हुए हैं, उनमें फलदान की शक्ति नहीं होती। संसारी आत्माओं में कर्म-बन्ध का कारण विद्यमान होता है, अतः कर्म-पुद्गल आत्मा के द्वारा ग्रहण किए जाते हैं तथा उन पुद्गलों का आत्मा के साथ एकीभाव होने से उनमें फल देने की शक्ति आ जाती है और वे यथासमय अपना फल देकर आत्मा से अलग हो जाते हैं। अतः आत्मा और कर्म के सम्बन्ध का मुख्य हेतु आत्मा की तदनुकूल प्रवृत्ति ही है। आत्मा के साथ कर्म का अनादि सम्बन्ध प्रवाहरूप से है, व्यक्तिरूप से नहीं, क्योंकि सभी कर्म अवधि-सहित होते हैं। कर्म-पुद्गलों में कोई एक भी ऐसा नहीं, जो अनादिकाल से आत्मा के साथ लगा हुआ हो। सबसे उत्कृष्ट स्थिति मोहनीय कर्म की है। वह भी उत्कृष्ट रूप से ७० क्रोड़ाक्रोड़ सागर तक आत्मा के साथ सम्बन्धित रह सकता है, उससे अधिक नहीं। इसलिए आत्मा की मुक्ति होने में कोई भी आपत्ति नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy