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________________ दसवां बोल कर्म के बिना एक क्षण भी संसार में नहीं टिकती। जितने कर्म-पुदगल आत्मा से चिपकते हैं, वे सब अवधि-सहित होते हैं। कोई भी एक कर्म अनादिकाल से आत्मा के साथ घुल मिलकर नहीं रहता। फलतः हमें यह कहना होगा कि आत्म से कर्मों का सम्बन्ध प्रवाहरूप से अनादि और भिन्न-भिन्न व्यक्ति रूप से सादि है। तर्कशास्त्र का यह एक नियम है कि जो अनादि होता है, उसका कभी अन्त नहीं होता। यह हम जानते हैं कि आत्माएं अनादिकालीन कर्म-बन्धन तोड़कर मुक्त होती हैं। इसका समाधान इन शब्दों में हो चुका है कि आत्मा और कर्म का सम्बन्ध प्रवाह रूप से अनादि है, व्यक्तिरूप से नहीं। एक प्रश्न है--अचेतन एवं रूपी कर्म-पुद्गल चेतन एवं अरूपी आत्मा से कैसे संबंध करते हैं। यद्यपि आत्मा स्वरूपतः अमूर्त है, तथापि संसारी आत्मा का स्वरूप कर्मावृत होने के कारण पूर्णरूपेण प्रकट नहीं होता। अवएव संसारस्थ आत्माएं कथंचित् (किसी दृष्टिकोण से) मूर्त भी मानी जाती हैं। कर्म का सम्बन्ध इस कोटि की आत्माओं से ही होता है। जो आत्माएं सर्वथा अमूर्त-कर्म-मुक्त हो जाती हैं, उनसे फिर कर्म सम्बन्ध नहीं कर पाते। इसका सार इतना ही है कि कर्म-युक्त आत्मा के कर्म लगते हैं। यह पूछा जा सकता है कि आत्मा के पहले-पहल कर्म कैसे लगे? पर जब हम आत्मा एवं कर्म की पहल निकाल ही नहीं सकते, क्योंकि उनका प्रारम्भ है ही नहीं, तब श्रीगणेश कैसे बतलाएं ? इसका समुचित उत्तर यही है कि आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अपश्चानुपूर्वी है अर्थात् वह सम्बन्ध न तो पीछे है और न पहले। यदि कर्मों से पहले आत्मा को मानें तो फिर उसके कर्म लगने का कोई कारण नहीं बनता। कर्मों को भी आत्मा से पहले नहीं मान सकते क्योंकि वे किए बिना होते नहीं और आत्मा के बिना उनका किया जाना सर्वथा असंभव है। इन दोनों का एक साथ उत्पन्न होना भी अयौक्तिक है। पहले तो उन्हें उत्पन्न करने वाला ही नहीं। दूसरे में कल्पना करो कि यदि ईश्वर को इनका उत्पादक मान लें तो भी हमारी गुत्थी सुलझती नहीं। प्रत्युत इतनी विकट समस्याएं हमारे सामने आ खड़ी होती हैं कि उनका हल नहीं निकाला जा सकता। ईश्वर ने क्या असत् से सत् का निर्माण किया या सत् का परिवर्तन किया ? असत् से सत् और सत् से असत् नहीं हो सकता, यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है। सत् का रूपान्तरण भी क्यों किया एवं क्या से क्या किया? पहले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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