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________________ ५० जीव-अजीव ३. बाल-तपस्या--मिथ्यात्वी की तपस्या। ४. अकाम-निर्जरा-मोक्ष की इच्छा के बिना की जाने वाली तपस्या। नाम कर्म-बन्ध के कारण नाम कर्म के दो प्रकार हैं--शुभ नाम कर्म और अशुभ नाम कर्म । शुभ नामकर्म बन्ध के चार कारण हैं१. काय-ऋजुता--दूसरों को ठगने वाली शारीरिक चेष्टा न करना। २. भाव-ऋजुता--दूसरे को ठगने वाली मानसिक चेष्टा न करना। ३. भाषा-ऋजुता-दूसरे को ठगने वाली वचन की चेष्टा न करना। ४. अविसंवादन-योग--कथनी और करनी में विसंवादन न करना । उक्त कार्यों को करना अशुभ नामकर्म बंधने के कारण हैं। गोत्र कर्म-बन्ध के कारण गोत्र कर्म के दो प्रकार हैं-उच्च गोत्र कर्म और नीच गोत्र कर्म । गोत्र कर्म-बन्ध के आठ कारण - १. जाति २. कुल ३. बल ४. रूप ५. तपस्या ६. श्रुत (ज्ञान) ७. लाभ ८. ऐश्वर्य-इनका मद--अहं न करना उच्च गोत्र-बन्ध के कारण हैं और इनका मद--अहं करना नीच गोत्र-बन्ध के कारण हैं। अन्तराय कर्म-बन्ध के कारण १. दान २. लाभ ३. भोग ४. उपभोग ५. वीर्य (उत्साह या सामर्थ्य) उन सब में बाधा डालना। कमों की दस मुख्य अवस्थाएं १. बन्ध २. उद्वर्तन ३. अपवर्तन ४. सत्ता ५. उदय ६. उदीरणा ७. संक्रमण ८. उपशमन ६. निधत्ति १०. निकाचना। १. बन्ध-जीव के असंख्य प्रदेश हैं। मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग के निमित्त से जीव के असंख्यात प्रदेशों में कम्पन पैदा होता है। इस कम्पन के फलस्वरूप जिस क्षेत्र में आत्म-प्रदेश हैं उस क्षेत्र में विद्यमान अनन्तानन्त कर्म-योग्य पुद्गल जीव के एक-एक प्रदेश के साथ चिपक जाते हैं, बन्ध जाते हैं। जीव-प्रदेशों के साथ इन कर्म-पुद्गलों का इस प्रकार चिपक जाना (बन्ध जाना) ही बन्ध कहलाता है। जीव और कर्म का यह सम्बन्ध ठीक वैसा ही है जैसा दूध और पानी का, अग्नि और तप्त लोह-पिण्ड का। इस प्रकार आत्म-प्रदेशों के साथ बन्ध को प्राप्त कार्मण-वर्गणा के पुद्गल ही कर्म कहलाते हैं। बन्ध के चार भेद हैं: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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