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दसवां बोल
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१. प्राण', भूत, जीव, सत्त्वों को अपनी असत् प्रवृत्ति से दुःख न देना। २. प्राण, भूत , जीव, सत्त्वों को हीन न बनाना। ३. प्राण, भूत, जीव, सत्त्वों के शरीर को हानि पहुंचाने वाला शोक पैदा
न करना। ४. प्राण, भूत, जीव, सत्त्वों को न सताना। ५. प्राण, भूत, जीव, सत्त्वों पर लाठी आदि से प्रहार न करना। ६. प्राण, भूत, जीव, सत्त्वों को परितापित न करना।
उक्त कामों के करने से असातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है। मोहनीय कर्म-बन्ध के कारण
तीव्र क्रोध, तीव्र मान, तीव्र माया, तीव्र लोभ, तीव्र दर्शनमोह, तीव्र चारित्र-मोह, तीव्र मिथ्यात्व।
हास्य, रति आदि तीव्र नो-कषाय। आयुष्य कर्म-बन्ध के कारण
(क) नरक-आयु बन्धने के चार कारण हैं :१. महा आरम्भ २. महा परिग्रह ३. पंचेन्द्रिय-वध ४. मांसाहार । (ख) तिर्यञ्च-आयु बन्धने के चार कारण हैं:
१. माया करना २. गूढमाया (एक कपट को ढंकने के लिए दूसरा छल) करना ३. असत्य वचन बोलना ४. कूट तोल-माप करना।
(ग) मनुष्य-आयु बन्धने के चार कारण हैं:
१. सरल-प्रकृति होना २. प्रकृति विनीत होना, ३. दया के परिणाम रखना ४. ईर्ष्या न करना।
(घ) देव-आयु बन्धने के चार कारण हैं :
१. सराग-संयम-राग युक्त संयम का पालन (आयुष्य का बन्ध न तो राग से होता है और न संयम से होता है, वह तो सरागी संयमी की तपश्चर्या से होता है। अभेदोपचार से उसे सराग-संयम कहा गया है)।
२. संयमासंयमश्रावकपन का पालन। १. प्राणाः द्वित्रिःचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः।
जीवाः पंचेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वाः उदीरिता। दो, तीन और चार इन्द्रिय वाले जीव 'प्राण', वनस्पति के जीव 'भूत', पांच इन्द्रिय वाले सभी प्राणी 'जीव' और शेष चार स्थावर (पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु के) जीव 'सत्त्व' कहलाते
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