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दसवां बोल
(क) प्रकृति-बन्ध-जीव की शुभ प्रवृत्ति के समय ग्रहण किए हुए कर्म-पुद्गल शुभ तथा अशुभ प्रवृत्ति के समय ग्रहण किए हुए कर्म-पुद्गल अशुभ होते हैं। कर्म-पुद्गलों का जीव के साथ सम्बन्ध होने पर, ज्ञान को रोकने का स्वभाव, दर्शन को रोकने का स्वभाव, इस प्रकार भिन्न-भिन्न स्वभाव का होना प्रकृति-बन्ध कहलाता है।
(ख) स्थिति-बंध-जीव के द्वारा जो शुभाशुभ कर्म-पुद्गल ग्रहण किये गये हैं, वे अमुक काल तक अपने स्वभाव को कायम रखते हुए जीव-प्रदेशों के साथ बन्धे रहेंगे, उसके बाद वे शुभ या अशुभ रूप में उदय आयेंगे, इस प्रकार से कर्मों का निश्चित काल तक के लिए जीव के साथ बंध जाना--स्थिति-बन्ध है।
(ग) अनुभाग-बन्ध (रस-बन्ध)-कुछ कर्म तीव्र रस से बंधते हैं और कुछेक मन्द रस से। शुभाशुभ कार्य करते समय जीव की जितनी मात्रा में तीव्र या मन्द प्रवृत्ति रहती है, उसी के अनुरूप कर्म भी बंधते हैं और उनमें फल देने की वैसी ही शक्ति होती है।
(घ) प्रदेश-बन्ध --भिन्न-भिन्न कर्म-दलों में परमाणुओं की संख्या का न्यूनाधिक होना प्रदेश-बन्ध है। ग्रहण किए जाने पर भिन्न-भिन्न स्वभाव में परिणत होने वाली कर्म-पुद्गल-राशि स्वभावानुसार अमुक-अमुक परिणाम में बंट जाती है-यह परिणाम विभाग ही प्रदेश-बन्ध कहलाता है।
जीव संख्यात परमाणुओं से बने हुए कर्म-पुद्गलों को ग्रहण नहीं करता, परन्तु अनन्त परमाणु वाले स्कन्ध को ग्रहण करता है।
२. उद्वर्तन-स्थिति-बन्ध और अनुभाग-बन्ध के बढ़ने को उद्वर्तना कहते
३. अपवर्तन-स्थिति-बन्ध और अनुभाग-बन्ध के घटने को अपवर्तना कहते हैं। उद्वर्तना और अपवर्तना के कारण कोई कर्म शीघ्र फल देता है और कोई देर में, किसी का फल तीव्र होता है और किसी का मन्द ।
४. सत्ता-बंधने के बाद कर्म का फल तत्काल नहीं मिलता, कुछ समय बाद मिलता है। कर्म जब तक फल न देकर अस्तित्व रूप में रहता है तब तक उसे सत्ता कहते हैं।
१. उदय-स्थिति बन्ध पूर्ण होने पर जब कर्म शुभ या अशुभ रूप में भोगे जाते हैं तब उसे उदय कहते हैं। वह (उदय) दो प्रकार का होता हे-फलोदय और प्रदेशोदय। जो कर्म अपना फल देकर नष्ट होता है, उसे फलोदय या
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