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________________ दसवां बोल ४७ कहते हैं। उन कर्मों का मूलोच्छेद होने से ही आत्मा सर्वज्ञ या सर्वदर्शी बन सकती है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय-ये चार घाति-कर्म कहलाते हैं। अघातिकर्म-जो कर्म आत्मा के मुख्य गुणों का घात नहीं करते, उनको हानि नहीं पहुंचाते, वे अघाति-कर्म कहलाते हैं। घाति-कर्मों के अभाव में ये कर्म पनपते नहीं, उसी जन्म में शेष हो जाते हैं। वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र--ये चार अघातिकर्म हैं। कर्म और उनका कार्य १. ज्ञानावरणीयकर्म आंख की पट्टी के समान है। जिस प्रकार आंख के आगे पट्टी बांधने से देखने में रुकावट होती है, वैसे ही ज्ञानावरणीयकर्म जानने में रुकावट डालता है। २. दर्शनावरणीयकर्म प्रतिहारी के समान है। जैसे प्रतिहारी राजा के दर्शन में रुकावट डालता है, वैसे ही दर्शनावरणीयकर्म देखने में बाधा डालता ३. वेदनीयकर्म मधुलिप्त तलवार की धार के समान है। जिस प्रकार मधु से लिप्त तलवार की धार को चाटने से स्वाद मालूम पड़ता है, उसके समान सातावेदनीय है और जीभ कट जाती है, उसके समान असातावेदनीय है। ४. मोहनीयकर्म मद्यपान करने के समान है। जिस प्रकार मद्यपान करने वाले को सुध-बुध नहीं रहती है, वैसे ही मोहनीयकर्म के उदय से जीवों की तत्त्व-श्रद्धा विपरीत होती है और विषय-भोगों में आसक्ति रहती है। ५. आयुष्यकर्म खोड़े (बेड़ी) के समान है। जिस प्रकार काठ के खोडे में दिया हुआ आदमी उसको तोड़े बिना निकल नहीं सकता, वैसे ही आयुष्य-कर्म को पूरा भोगे बिना जीव एक भव से दूसरे भव में नहीं जा सकता और आयुष्य-कर्म का क्षय किये बिना मोक्ष भी नहीं पा सकता। ६. नामकर्म चित्रकार के समान है। जिस प्रकार चित्रकार नये-नये चित्रों का निर्माण करता है, वैसे ही नामकर्म के उदय से तरह-तरह के शरीर, नाना प्रकार के रूप और तरह-तरह के अंगोपांग आदि का निर्माण होता है। ७. गोत्रकर्म कुम्भकार के समान है। जिस प्रकार कुम्भकार छोटे-बड़े जैसे चाहे वैसे ही घड़ो को तैयार करता है, वैसे ही गोत्र-कर्म के उदय से जीव अच्छी दृष्टि से देखे जाने वाले, तुच्छ दृष्टि से देखे जानेवाले ऊंच-नीच आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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