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जीव-अजीव
होती है।
आत्मा का दूसरा गुण है- केवलदर्शन। यह भी ज्ञान की भांति सब आत्माओं में विद्यमान है । इस द्वितीय गुण को आवृत करनेवाले कर्म-पुद्गलों का नाम है--दर्शनावरणीय कर्म। इस कर्म के क्षीण होने से ही केवलदर्शन की प्राप्ति होती है।
आत्मा का तीसरा गुण है-आत्मिक सुख। इसको रोकने वाले पुद्गलों का नाम है--वेदनीयकर्म
___ आत्मा का चौथा गुण है--सम्यक्-श्रद्धा । इसको रोकनेवाले पुद्गलों का नाम है-मोहनीय कर्म।
आत्मा का पांचवां गुण है-अटल अवगाहन । इस शाश्वत स्थिरता को रोकने वाले पुद्गलों का नाम है-आयुष्यकर्म।
आत्मा का छठा गुण है-अमूर्तिकपन । इसको रोकनेवाले पुद्गलों का नाम है-नामकर्म । नामकर्म के उदय से ही शरीर मिलता है। शरीर-समाविष्ट अमूर्त आत्मा भी मूर्त-सी प्रतीत होने लगती है।
आत्मा का सातवां गुण है-अगुरुलघुपन (न छोटापन, न बड़ापन)। इसको रोकनेवाले पुद्गलों का नाम है--गोत्र-कर्म।
आत्मा का आठवां गुण है--लब्धि। इसको रोकनेवाले पुद्गलों का नाम है--अन्तराय-कर्म।
कर्म-वर्गणा के पुद्गल (कर्म-योग्य पुद्गल) चतुःस्पर्शी होते हैं, अष्ट-स्पर्शी नहीं।
प्राणियों से सम्बन्ध रखने वाले विश्व के समस्त पुद्गलों को दो विभागों में विभाजित किया जा सकता है :
१. अष्ट-स्पर्शी-वे पुद्गल, जिनमें वर्ण, गन्ध, रस के साथ हल्कापन, भारीपन आदि आठों स्पर्श हों।
२. चतुःस्पर्शी-वे पुद्गल, जिनमें वर्ण, गन्ध, रस; तथा शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष--ये चार स्पर्श हों। कर्म के दो वर्ग ____ आत्मा के साथ चिपकनेवाले कर्म-पुद्गलों को दो भागों में बांटा गया है--घाति-कर्म और अघाति-कर्म।
___घातिकर्म-जो कर्म-पुद्गल आत्मा से चिपककर आत्मा के मुख्य या स्वाभाविक गुणों का घात करते हैं--उनका हनन करते हैं, उनको घातिकर्म
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