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________________ कर्म आठ १. ज्ञानावरणीय २. दर्शनावरणीय ५. आयुष्य ६. नाम ७. गोत्र ३. वेदनीय ४. मोहनीय ८. अन्तराय जीव चेतनामय अरूपी पदार्थ है। उसके साथ लगे हुए सूक्ष्म मलावरण को कर्म कहते हैं । कर्म पुद्गल है, जड़ है। कर्म के परमाणुओं को कर्मदल कहते हैं। आत्मा पर रही हुई राग-द्वेष रूपी चिकनाहट और योगरूपी चंचलता के कारण कर्म-परमाणु आत्मा के साथ चिपक जाते हैं। कर्मदल आत्मा के साथ अनादिकाल से चिपके हुए हैं। उनमें से कई अलग होते हैं तो कई नये चिपक जाते हैं। इस प्रकार यह क्रिया बराबर चालू रहती है। मित्यात्व, अव्रत प्रमाद, कषाय और योग के कारण आत्मा कर्म-वर्गणा ग्रहण करती है और यही कर्म है। कर्म-वर्गणा एक प्रकार की अत्यन्त सूक्ष्म रज है, जिसे सर्वज्ञ या अवधिज्ञानी ही जान सकते हैं। कर्म की परिभाषा शुभ एवं अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट और सम्बन्धित होकर जो पुद्गल आत्मा के स्वरूप को आवृत करते हैं, विकृत करते हैं और शुभाशुभ फल के कारण बनते हैं (शुभाशुभ रूप से उदय में आते हैं), आत्मा द्वारा गृहीत उन पुद्गलों का नाम है - कर्म । यद्यपि ये पुद्गल एकरूप हैं तो भी ये जिस आत्म- गुण को आवृत, विकृत या प्रभावित करते हैं, उसके अनुसार ही उन पुद्गलों का नाम हो जाता है । Jain Education International दसवां बोल आत्मा के गुण आठ हैं - केवलज्ञान, केवलदर्शन, आत्मिक सुख, क्षायकसम्यक्त्व, अटल अवगाहन, अमूर्तिकपन, अगुरुलघुपन और लब्धि । आत्मा का पहला गुण है -- केवलज्ञान । उसको रोकनेवाले पुद्गलों का नाम है - ज्ञानावरणीय कर्म । संसार में जितनी आत्माएं हैं, उन सबमें अनन्तज्ञान विद्यमान है, परन्तु जब तक ज्ञानावरणीय कर्म क्षीण नहीं होता तब तक वह ज्ञान कर्म से आवृत रहता है। कर्म के क्षीण होने से ही केवलज्ञान की प्राप्ति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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