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जीव-अजीव
यदि द्रव्यमन न हो तो आत्मा को इंद्रियजन्य ज्ञान नही हो सकता। संसारी समनस्क आत्मा के द्रव्यमन अवश्य होगा। वह मुक्त आत्मा के नहीं होता। अतः मुक्त आत्मा को इंद्रिय-ज्ञान भी नहीं होता। वह तो सम्पूर्ण ज्ञानमय
है।
मन का व्यापार-स्पर्श, रस, गन्ध, रूप शब्द में इद्रिय-ज्ञान की प्रवृत्ति होने के पश्चात मन की प्रवृत्ति होती है। जब इन्द्रियां अपने-अपने विषय का ज्ञान कर लेती हैं तब उन विषयों पर मनन करना मन का काम है, इसके सिवाय चिन्तन आदि में मन की प्रवृत्ति स्वतंत्र भी होती है।
मन का परिणाम-मनन करने में सहायता करने वाले पुद्गलों से निष्पन्न द्रव्य-मन अर्थात् पौद्गलिक मन शरीर-व्यापी है और जो मनन करने वाला भावमन अर्थात् जीव-मन है, वह आत्म-प्रदेशव्यापी है। इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किए गए सब विषयों में मन की गति है और वह मन को शरीरव्यापी माने बिना घट नहीं सकती।
मन शरीर के अन्दर सर्वत्र वर्तमान है, किसी खास स्थान में नहीं। शरीर के भिन्न-भिन्न स्थानों में वर्तमान इद्रियों के ग्रहण किए गए सभी विषयों में मन की गति है--'यत्र पवनस्तत्र मनः।'
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