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(ख) जब केवली समुद्घात' करते हैं उस समय तीसरे, चौथे और पांचवें समय में कार्मण-काययोग होता है।
जीव-अजीव
प्रश्न - चार शरीर की भांति तैजस-शरीर का योग क्यों नहीं?
उत्तर- तेजस का कार्मण योग में समावेश हो जाता है। जिस समय औदारीक, वैक्रिय और आहारक होते हैं, उस समय तो वे अपना काम करते ही हैं, परन्तु जिस समय (एक भव से दूसरे भव में जाने के समय) वे नहीं होते तब कार्मण शरीर के द्वारा जो वीर्य-शक्ति का व्यापार होता है, वह तैजस शरीर के द्वारा होता है, इसलिए तैजस काययोग का समावेश कार्मण काययोग में हो जाता है।
प्रश्न- मन क्या है?
उत्तर -- जिसके द्वारा मनन किया जाए, सोचा जाए, दिचारा जाए, वह मन है । मन पांचों इन्द्रियों के विषय का और अतिरिक्त विषय का ज्ञान करता है । मानस-ज्ञान इन्द्रिय- ज्ञान की तरह वर्तमान तक ही सीमित नहीं, किंतु त्रैकालिक है।
मन का स्वरूप- मन ज्ञान है और ज्ञान आत्मा का गुण है। गुण-गुणी से किसी अपेक्षा से भिन्न होता है और किसी अपेक्षा से अभिन्न । यदि गुण गुणी से सर्वथा भिन्न माना जाए तो गुण इस द्रव्य का है, यह संबंध भी नहीं हो सकता और यदि सर्वथा एक ही मान लिया जाए तो यह गुण है, यह गुणी है - ऐसा नहीं कह सकते। अतएव गुणी से गुण कथचित् भिन्न होता है और कथचित् अभिन्न होता है। मन आत्मा से कदापि पृथकू नहीं हो सकता, इस अपेक्षा से वह आत्मा से अभिन्न है और वह आत्मा का गुण है इस अपेक्षा से वह आत्मा
१. केवली समुद्घात - आयुष्य कर्म की स्थिति और दलिकों से जब वेदनीय कर्म की स्थिति और दलिक अधिक होते हैं तब उनको आपस में बराबर करने के लिए केवली समुद्घात होता है। जब सिर्फ अन्तर्मुदुर्र आयुष्य बाकी रहता है तभी समुद्घात होता है। समुद्घात में आठ समय लगते हैं। पहले समय में आत्म-प्रदेश शरीर के बाहर निकलकर दण्डाकार फैल जाते हैं। वह दण्ड ऊंचाई -निचाई में लोक-प्रमाण होता है, पर उसकी मोटाई शरीर के बराबर होती है। दूसरे समय में उक्त दण्ड पूर्व-पश्चिम या उत्तर-दक्षिण फैलकर कपाटाकार (किंवाड के आकार का ) बन जाता है। तीसरे समय में कपाटाकार आत्म प्रदेश पूर्व पश्चिम और उत्तर दक्षिण फैलकर मन्याकर (मन्यनी के आकार के) बन जाते हैं। चौथे समय में खाली भागों में फैलकर आत्म-प्रदेश समूचे लोक में व्याप्त हो जोते हैं। जिस प्रकार प्रथम चार समयों में आत्म-प्रदेश क्रमशः फैलते हैं वैसे ही अन्त के चार समयों में क्रमशः सिकुड़ते हैं। पांचवें समय में फिर मन्धाकार, छठे समय में कपाटाकर, सातवें समय में दण्डाकर और आठवें समय में पहले की भाति शरीरस्थ हो जाते है।
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