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________________ आठवां बोल जब तक वह पूर्ण नहीं होता तब तक वैक्रिय काययोग के साथ औदारिक-मित्र काययोग होता है। (ग) विशिष्ट शक्ति-सम्पन्न योगी आहारक लब्धि को काम में लाता है, परन्तु जब तक आहारक-शरीर पूरा नहीं बन जाता तब तक आहारक काययोग के साथ औदारिक-मिश्र काययोग होता है। (घ) केवली समुद्घात के दूसरे, छठे और सातवें समय में कार्मण के साथ औदारिक-मिश्र काययोग होता है। (३) वैक्रिय काययोग--देवता और नारकी में शरीर-पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद वैक्रिय-शरीर की तथा मनुष्य और तिर्यंच में लब्धिजन्य वैक्रिय-शरीर की जो क्रिया होती है, वह वैक्रिय काययोग है। (४) वैक्रिय-मिश्र काययोग-यह दो प्रकार से हो सकता है (क) देवता और नारकी में उत्पन्न होने वाला जीव आहार ले लेता है, परन्तु शरीर-पर्याप्ति पूर्ण नहीं बांधता, उस अवस्था में कार्मण-योग के साथ वैक्रिय-मिश्र काययोग होता है। (ख) औदारिक शरीरवाले मनुष्य और तिर्यंच अपनी विशिष्ट शक्ति से वैक्रिय रूप बनाते हैं और उसको फिर समेटते हैं, परन्तु जब तक औदारिक शरीर पुनः पूर्ण न बन जाए तब तक औदारिक काययोग के साथ वैक्रिय-मिश्र काययोग होता है। (५) आहारक-काययोग--जब आहारक शरीर पूरा बनकर क्रिया करता है, तब उसको कहते हैं आहारक-काययोग। (६) आहारक-मिश्र काययोग-जिस समय आहारक शरीर अपना कार्य करके वापस आकर औदारिक शरीर में प्रवेश करता है, उस समय औदारिक के साथ आहारक-मिश्र काययोग होता है। (७) कार्मण काययोग--(क) जीव एक भव से दूसरे भव में जाने के लिए ऋजुगति या वक्रगति के द्वारा गमन करता है। एक समय वाली ऋजु गति में जीव अनाहारक नहीं रहता, परन्तु वक्रगति में जघन्यतः एक समय और उत्कृष्ट दो समय अनाहारक रहता है--किसी भी प्रकार के आहार को ग्रहण नहीं करता। ऐसे समय में होने वाले योग का नाम है, कार्मण काययोग। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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