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जीव-अजीव
(१) आमंत्रिणी-संबोधन करना, जैसे--हे प्रभो ! (२) आज्ञापनी--आज्ञा देना, जैसे--यह काम करो। (३) याचनी--याचना करना, जैसे-यह चीज हमें दो।
(४) प्रच्छनी-पूछना, किसी विषय में सन्देह होने पर पूछकर उसकी निवृत्ति करना।
(५) प्रज्ञापनी--प्ररूपणा करना, जैसे--जीव है, अजीव है इत्यादि। (६) प्रत्याख्यानी-त्याग करना, 'मैं अमुक वस्तु नहीं खाऊंगा।'
(७) इच्छानुलोमा--इच्छानुसार अनुमोदन करना, जैसे-किसी ने पूछा-मैं अमुक काम करूं या नहीं, तब उसे उत्तर देना- तू कर, मैं तेरे काम का अनुमोदन करता हूं।
(८) अनभिगृहीता-अपनी सम्मति प्रकट न करना, जैसे किसी ने पूछा--मैं यह काम करूं? तो उत्तर देना, जैसी तुम्हारी इच्छा हो।
(E) अभिगृहीता--सम्मति देना, जैसे-- यह काम तुम्हें करना चाहिए।
(१०) संशयकारिणी-जिस शब्द के अनेक अर्थ हैं, उसका प्रयोग करना, जैसे--सैंधव लाओ। यहां सेंधव शब्द से संदेह हो सकता है-घोड़ा या नमक।
(११) व्याकृत--विस्तार सहित बोलना, जिससे स्पष्ट समझ में आ जाए। __ (१२) अव्याकृत--अति गम्भीरता युक्त बोलना, जो कि समझ में आना कठिन हो जाए। काययोग-काया (शरीर) की प्रवृत्ति के लिए जो शरीर वर्गणा के पुद्गल ग्रहण किए जाते हैं, वे हैं द्रव्य-काययोग और उन पुद्गलों की सहायता से जो जीव की प्रवृत्ति होती है, वह है भाव-काययोग। काययोग के सात भेद हैं :
(१) औदारिक काययोग-औदारिक शरीर वाले मनुष्यों और तिर्यंचों में शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद जो हलन चलन की क्रिया होती है, वह है औदारिक काययोग।
(२) औदारिक-मिश्र काययोग--यह चार प्रकार से हो सकता है
(क) मनुष्य एवं तिर्यंच गति में उत्पन्न होने के समय जीव आहार ले लेता है, परन्तु शरीर पर्याप्ति का बन्ध पूर्ण नहीं हो पाता, उस अवस्था में कार्मण काययोग के साथ औदारिक-मिश्र होता है।
(ख) वैक्रियलब्धि वाले मनुष्य और तिर्यंच वैक्रिय रूप बनाते हैं, परन्तु
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