SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४० जीव-अजीव द्वारा कष्ट देना हिंसा है। हिंसात्मक वचन असत्य है। हिंसा और असत्य का आचरण साधु के लिए वर्जनीय है। अचौर्य-महाव्रत-तीसरे महाव्रत में चोरी करने का सर्वथा त्याग किया जाता है। अधिकारी की आज्ञा के बिना साधु किसी भी मकान में ठहर नहीं सकता और वह अभिभावकों की अथवा आश्रित व्यक्तियों की अनुमति के बिना किसी को दीक्षा भी नहीं दे सकता। अधिकारी की आज्ञा के बिना उसका एक तृण भी नहीं ले सकता। ब्रह्मचर्य-महाव्रत-चौथे महाव्रत में मैथुन-अब्रह्मचर्य का सर्वथा परित्याग किया जाता है। साधु स्त्री-जाती का स्पर्श तक नहीं कर सकता, चाहे उसकी वह मां या बहिन ही क्यों न हो। साधु स्त्री के साथ एक आसान पर नहीं बैठ सकता। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के लिए आचार्य भिक्षु रचित-'शील की नवबाड़' का अध्ययन करना जरूरी है। अपरिग्रह-महाव्रत-पांचवे महाव्रत में परिग्रह का सर्वथा परित्याग किया जाता है। साधु आवश्यक धर्मोपकरण के सिवाय और किसी भी वस्तु का संचय नहीं करता । धर्मोपकरण पर भी वह ममता या मूर्छा नहीं करता। प्रश्न--साधु के धर्मोपकरण-वस्त्र, पात्र और पुस्तकें परिग्रह क्यों नहीं? उत्तर -जिस वस्तु का ग्रहण ममता-भरे मन से किया जाता है, उसका नाम परिग्रह है। साधु सिर्फ संयम-निर्वाह के लिए आवश्यक एवं परिमित वस्त्र, पात्र आदि ग्रहण करता है। वे उपकरण परिग्रह नहीं, प्रत्युत संयम में सहायक हैं। यदि उन्हें परिग्रह माना जाए तो फिर साधु के शरीर को परिग्रह क्यों न माना जाये? जैसे वस्त्र, पात्र परिग्रह है वैसे ही शरीर भी परिग्रह है। वस्त्र, पात्रों को हम परिग्रह माने और शरीर को परिग्रह न मानें, यह कैसे हो सकता है? शरीर अनिवार्य है, अतः वह परिग्रह नहीं--यह उचित उत्तर नहीं। जो छोड़ा जा सकता है, वही परिग्रह है--परिग्रह की यह परिभाषा भी ठीक नहीं। वास्तव में जो मूर्छा (ममत्व) है, वही परिग्रह है। मुनि न तो लोभ से वस्त्र, पात्र, ग्रहण करता है, न उन पर ममता रखता है और न संचय ही करता है। अतः उसके धर्मोपकरण परिग्रह नहीं। रात्रि-भोजन-विरति-इन पांच महाव्रतों के सिवाय एक छठा व्रत और है। उसमें जीवन-पर्यन्त रात्रि-भोजन का त्याग किया जाता है। रात्रि में कोई भी खाने-पीने की चीज पास रखना साधु के लिए निषिद्ध है। साधु रात्रि में कुछ भी खा-पी नहीं सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy