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तेइसवां बोल
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ले नहीं सकता। क्योंकि अदत्त वस्तु लेना चोरी है और वह साधु के लिए सर्वथा वर्जनीय है। अतएव उन वस्तुओं के साथ उसका सम्बन्ध गृहस्थ से उन्हें लेने के समय ही होता है, उससे पहले नहीं। इस प्रकार साधु खान-पान सम्बन्धी हिंसा से बचता है।
हिंसा दो प्रकार की है--देश-हिंसा और सर्व-हिंसा। जिस असत् प्रयत्न से किसी व्यक्ति की आत्मा को कष्ट हो, वह देश-हिंसा है और जिस प्रयत्न से प्राण-नाश हो, वह सर्व-हिंसा है। साधु के लिये दोनों प्रकार की हिंसा सवर्था त्याज्य है।
रात्रि में मुनि रजोहरण से जमीन को साफ कर चलते हैं, ताकि हिंसा से बचाव हो सके। पृथ्वी (मिट्टी) में जीव होते हैं। अतः साधु ताजी खोदी हुई मिट्टी को नहीं छूते, जब तक कि वह किसी विरोधी द्रव्य के संयोग से अचित्त--जीव-रहित न हो गई हो। कुएं का जल, नदी का जल, तालाब का जल, वर्षा का जल आदि पानी जीव-सहित होता है। उसे कच्चा जल कहा जाता है, साधु ऐसा जल नहीं ग्रहण करते।।
कच्चे जल को उबालने से या उसमें राख, चूना आदि पदार्थ डालने से वह पका बन जाता है। साधु को यदि ऐसे उबले हुए पानी या राख, चूना आदि मिले पानी का संयोग मिले तो वह ग्रहण करता है। पका जल अचित्त--जीव-रहित होता है। पके जल को व्यवहार में लाने का कुछ वैज्ञानिक आधार भी है। बीमारी फैलानेवाले सूक्ष्म कीटाणु या पानी में पनपने वाले कृमि आदि के अण्डे पके पानी में नहीं रहते।।
साधु तेजस्काय (अग्नि) का भी प्रयोग नहीं करता। वह उसका स्पर्श तक नहीं करता। वह भंयकर सर्दी में भी जलती हुई अग्नि के पास जाकर अपने शरीर को गरम नहीं करता। हरे साग-सब्जी, फल आदि वनस्पतिकाय के जीव हैं। साधु उनका स्पर्श भी नहीं करता। अग्नि या विरोधी द्रव्यों के संयोग से वनस्पति अचित्त--जीव-रहित हो जाती है। अचित्त होने पर साधु उसे ग्रहण कर सकता है।
इस प्रकार जीवन-पर्यन्त अहिंसा का पालन करना पहला महाव्रत है।
सत्य-महाव्रत-दूसरे महाव्रत में असत्य बोलने का सर्वथा परित्याग किया जाता है। धर्म-रक्षा या प्राण-रक्षा के लिए भी मुनि असत्य नहीं बोल सकता। साधु ऐसा सत्य भी नहीं बोल सकता, जिससे किसी की आत्मा को कष्ट पहुंचे। मुनि अदालत में साक्षी नहीं दे सकता। सच्ची साक्षी देने से भी दो में से एक व्यक्ति को अवश्य कष्ट होता है। किसी भी व्यक्ति को अपनी असत् प्रवृत्ति
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