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बाईसवां बोल
श्रावक के बारह व्रत
१. अहिंसा-अणुव्रत ७. भोगोपभोग-परिमाण-व्रत २. सत्य-अणुव्रत
८. अनर्थदण्डविरतिव्रत ३. अस्तेय-अणुव्रत
६. सामायिक व्रत ४. ब्रह्मचर्य-अणुव्रत १०. देशावकाशिक-व्रत १. अपरिग्रह-अणुव्रत ११. पौषध-व्रत ६. दिग्विरति-व्रत
१२. अतिथि-संविभाग-व्रत आचरण की पवित्रता ही मानव जीवन का सर्वस्व है। जैन दर्शन में जैसा सम्यग-ज्ञान का महत्त्व है वैसा ही सम्यक्-क्रिया (सआचरण) का है। कोरे ज्ञान या कोरे आचरण से मोक्ष नहीं मिलता, किन्तु दोनों के उचित संयोग से ही मोक्ष मिलता है। एक पहिये से रथ नहीं चल सकता।
जैन दर्शन के अनुसार गृहस्थ व्यापार आदि के द्वारा गृह-निर्वाह करता हुआ भी धर्म की आराधना कर सकता है।
यों तो जो-जो शुद्ध आचरण हैं, ये सभी धर्म हैं तथापि धर्म के अधिकारियों की अपेक्षा से उसके दो भेद किए हैं--पूर्ण-धर्म और अपूर्ण-धर्म । पूर्ण-धर्म के अधिकारी वे ही व्यक्ति हो सकते हैं, जो अपनी समस्त वृत्तियों को त्याग-तपस्या में लगाकर पूर्ण संयमी बन जाते हैं। अपूर्ण-धर्म के अधिकारी प्राणीमात्र हैं। उदाहरण स्वरूप अहिंसा धर्म है। गृहस्थ अहिंसा का पूर्ण पालन नहीं कर सकता, तो भी अनावश्यक हिंसा को छोड़ सकता है। हिंसा में रहता हुआ गृहस्थ जो अनावश्यक हिंसा छोड़ता है वह धर्म है। एक गृहस्थ खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने आदि कार्यों में होने वाली सूक्ष्म जीवों की हिंसा, बड़े अपराधी जीवों की हिंसा तथा प्रमादवश होने वाली हिंसा छोड़ने में असमर्थ रहता है, वह धर्म नहीं है किन्तु निरपराध जीवों को जान-बूझकर मारने का त्याग करता हैं, वह धर्म है। ऐसे ही बड़ी झूठ, झूठी गवाही आदि से बचना, बड़ी चोरी का परिहार करना, पर-स्त्री का परित्याग करना, परिग्रह (धन-धान्य आदि) का अनावश्यक संग्रह नहीं करना और आवश्यक हिंसा का भी संकोच करना धर्म है। गृहस्थ गृहस्थपन में रहते हुए क्षमा करते हैं, मैत्री का बर्ताव करते हैं,
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