________________
बाइसवां बोल
१३३
सरलता का आचरण करते हैं आदि सब काम धार्मिक हैं-आत्मा को ऊँचा उठाने वाले हैं। धर्म एक ऐसा तत्त्व हैं, जिससे आंतरिक शुद्धि होती है और हर जगह, हर दशा में हर व्यक्ति उसे कर सकता है। धर्म कोई बाह्य-वस्तु नहीं, वह अपनी-अपनी आत्मा का गुण है। धर्म का अर्थ आत्म-साधना और आत्म-संयम है।
धर्म-शास्त्र और धर्म-गुरु आदि सब धर्म के व्यावहारिक साधन हैं। आत्मा को धार्मिक बनाने के लिए उनकी नितांत आवश्यकता है। पर असलियत में धर्म अपने-अपने आचरणों पर ही निर्भर है। एक कोई आदमी धर्म करना नहीं चाहता तो उससे धर्म-शास्त्र, धर्म-गुरु या दूसरा कोई भी बलपूर्वक धर्म नहीं करवा सकता। अतःएव धर्म का साधन उपदेश (शिक्षा) बतलाया गया है। सशिक्षा के द्वारा मनुष्य धर्म की असलियत पहचान लेता है और उसके बाद वह आत्म-संयम और शुद्ध-आचार का अभ्यास करता है।
न्यूनाधिक रूप में हर व्यक्ति में शुद्ध-आचार का अंश मिलता ही है। जिन गृहस्थों का आत्म-साधन की ओर अधिक झुकाव हो जाता है, वे अर्थ-हिंसा का भी संकोच करने लग जाते हैं और अपनी वृत्तियों को अधिकाधिक सन्तुष्ट बना डालते हैं। कहीं-कहीं गृहस्थ साधु-व्रत स्वीकार किए बिना भी संयम का प्रचुर अभ्यास करने के कारण साधुवत् बन जाते हैं। वे प्रतिमाधारी श्रावक कहलाते हैं।
साधु-जीवन में अहिंसा आदि का पूर्णरूपेण जीवनपर्यन्त पालन करना होता है। उन्हें महाव्रत कहते हैं। उनका विवेचन तेईसवें बोल में किया है। सम्यक्त्वी गृहस्थ अपनी अल्प शक्ति के अनुसार श्रावक के बाहर व्रत अंगीकार करता है, उनका संक्षिप्त वर्णन यहां किया गया है। विशेष जानकारी के लिए श्रीमद् भिक्षुस्वामी द्वारा रचित बारह-व्रत की चौपई' का अध्ययन करें।
अहिंसा-अणुव्रत-श्रावक छोटे-बड़े सभी जीवों की मानसिक, वाचिक तथा कायिक हिंसा का पूर्णतया त्याग नहीं करता, परन्तु वह कुछ अंशों में स्थूल हिंसा का त्याग कर सकता है। चलते-फिरते निरपराध प्राणियों को जानबूझकर मार डालने का त्याग करना-स्थूल हिंसा का त्याग करना, अहिंसा अणुव्रत है।
सत्य-अणुव्रत-श्रावक सूक्ष्म असत्य बोलने का त्याग करने में अपने को असमर्थ पाता है, परन्तु यदि वह सावधानी रखे तो बड़ा असत्य बोलने का त्याग कर सकता है। जिससे किसी निर्दोष प्राणी की हत्या हो वैसे असत्य का त्याग करना सत्य-अणुव्रत है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org