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________________ इक्कीसवां बोल एवं निष्क्रियता वस्तुओं की निजी शक्ति का परिणाम है, तो भी इनके सहयोग के बिना वे हो नहीं सकतीं। आकाश आश्रय देने के कारण उपकारी है । यह चराचर जगत् उसी के आधार पर टिका हुआ है। काल (समय) में संसार का सारा कार्यक्रम विधिवत् संचालित होता है। यह उसका स्पष्ट उपकार है। पुद्गल के बिना देहधारी प्राणी अपना निर्वाह ही नहीं कर सकते । श्वास- निःश्वास से लेकर खाने-पीने, पहनने आदि सब कार्यों में पौद्गलिक वस्तुएं ही काम में आती हैं। शरीर स्वयं पौद्गलिक है। मन, वचन की प्रवृत्ति भी पुद्गलों की सहायता से होती है। आत्माएं उनका उपयोग करने वाली हैं, चेतनाशील हैं। इन छहों द्रव्यों के उपकारों को - कार्यों को एकत्र करने से समूचे विश्व का संस्थान हमारी आंखों के सामने आ जाता है । १३१ लोक-स्थिति की जानकारी में अजीव के अन्तर्गत पदार्थों का जितना सम्बन्ध है, उतना जीव की विभिन्न दशाओं का नहीं। उनकी जानकारी तो आत्म-साधक के लिए आवश्यक है। जीव और अजीव-ये दो मूल हैं। पुण्य-पाप और बन्ध के द्वारा आत्मा बन्धती है, भौतिक सुख एवं दुःख मिलता है, अतएव ये तीनों मुक्ति के बाधक हैं। आश्रव कर्म-ग्रहण करनेवाली आत्मा की अवस्था है, इसलिए यह भी बाधक है। संवर से आगामी कर्मों का निरोध होता है। निर्जरा से पहले बन्धे हुए कर्म टूटते हैं। आत्मा उज्ज्वल होती है, इसलिए ये दोनों मोक्ष के साधक हैं। मोक्ष आत्मा की कर्म-मल-रहित विशुद्ध अवस्था है । इनको हम मौलिक दृष्टि से देखें तो पुण्य, पाप एवं बन्ध-ये अजीव की अवस्थाएं हैं और आश्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष- ये जीव की अवस्थाएं हैं। छह द्रव्यों से इनमें यह विशेषता है कि उनमें जीव का कोई भी विभाग नहीं और इनमें जीव की चार और अतिरिक्त अवस्थायें भी बतलाई गई हैं। उनमें अजीव के अन्तर्गत पांच स्वतन्त्र द्रव्यों का निर्देशन है और इनमें अजीव (पुद्गल) की तीन और अतिरिक्त अवस्थायें भी दिखाई गई हैं । फलतः छह द्रव्यों में एक द्रव्य जीव और पांच द्रव्य अजीव, नौ तत्त्वों में पांच तत्त्व जीव और चार तत्त्व अजीव हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि विश्व में मूल तत्त्व - राशि दो ही हैं - एक जीव- राशि और दूसरी अजीव राशि | जीव- राशि में सब जीव और अजीव राशि में सब अजीव समा जाते हैं या यां कहना चाहिए कि इनमें समूचा लोक समा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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